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किये जाबे (वही, 8-2-1950)
इसी बीच स्व. तनसुखराय ने अखिल भारतीय जैन एसोशिएसन के मंत्री के रूप में उपराक्त मेमोरेण्डम के औचित्य पर आपत्ति की (वही, 4-2-1950) और अपने वक्तव्य में उन्होंने इस बात पर बल दिया कि शब्द हिन्दू जातीयता सूचक है, राजनैतिक, सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टियों से जैन हिन्दुओं से पृथक नहीं हैं किन्तु उनकी अपनी पृथक संस्कृति है।
कुछ लोगों ने जैनों के इस क्वचित आन्तरिक मतभेद का लाभ उठाया आम जैनों का उपहास किया, उन पर लांछन लगाये, उनकी निन्दा और भर्त्सना की कि वे अपने आपको 'हिन्दूइज्म' से पृथक करना चाहते हैं, अल्प-संख्यक करार दिये जाकर राजनैतिक अधिकार लेना चाहते है, पृथक विश्व विद्यालय की मांग द्वारा इस धर्मनिरपेक्ष राज्य में अपने धर्म का प्रचार करना चाहते हैं, इत्यादि ( ईवनिंग न्यूज 143- 50 में किन्हीं फर्जी 'राइट एन्गिल' साहब का लेख) वीर अर्जुन (11-9-49) आदि में इसके पूर्व भी जैनों को स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार करने के विरूद्ध लेख निकाल चुके थे कुछ पत्रों में इसके बाद भी निकले। इसप्रकार के लेख साम्प्रदायिक मनोवृत्ति से प्रेरित होकर लिखे गये थे और बहुसंख्यक वर्ग द्वारा उस जैन विद्वेषी संकीर्ण मनोवृत्ति का परिचय दिया गया था जिसे बीच-बीच में यत्र-तत्र बहुसंख्यकों द्वारा जैनों पर किये गये धार्मिक अत्याचारों का श्रेय है । जिन विद्वानों, विशेषज्ञों, न्यायविदों एवं राजनीतिज्ञों के मत इसी लेख में पहिले प्रगट किये जा चुके हैं वे प्रायः उसी कथित हिन्दू धर्म
अनुयायी थे या हैं, किन्तु वे मनस्वी, निष्पक्ष और न्यायशील हैं -- धर्मान्ध या साम्प्रदायिक मनोवृत्ति के नहीं । अल्पसंख्यक समुदाय से बहुसंख्यक समुदाय वैसे ही भय रहता है जो बहुसंख्यकों के सौहार्द एवं सौभाग्य से दूर होता है, संख्या बल द्वारा दबा देने की मनोवृत्ति से नहीं ।
इन लेखों का एक असर यह हुआ कि कुछ जैनों ने, जिनमें स्व. ला. तनसुखराय प्रमुख थे, समाचारपत्रों में अनेकों लेखों एवं टिप्पणियों द्वारा कथित हिन्दुओं के इस भ्रम और आशंका को कि जैन हिन्दुओं से पृथक हैं का निवारण करने का भरसक प्रयत्न किया । इसकी शायद वैसी और उतनी आवश्यकता नहीं थी । 1954 में जब हरिजन मन्दिर प्रवेश आन्दोलन ने उग्ररूप धारण किया तब भी जैनों में दो पक्ष से दिख पड़े और उस समय भी ला. तनसुखराय ने यही प्रदर्शित करने का प्रयत्न किया कि जैन हिन्दुओं से पृथक नहीं हैं । सन् 1949-50 से 1954-55 तक के विभिन्न समाचारपत्रों में
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इन विषयों से सम्बन्धित समाचारों, टिप्पणियों आदि की कटिंग्स वह एकत्रित करके छोड़ गये हैं । उनके अवलोकन से यही लगता है कि ला. तनसुखरायजी को यह आशंका और भय था कि कहीं धर्म और संस्कृति संरक्षण के मोह के कारण जैनों ने स्वातन्त्र संग्राम में जो धन-जन की प्रभूति आहूति दी है-- अपनी संख्या के अनुपात से कहीं अधिक और देश को एवं राष्ट्र की सर्वतोमुखी उन्नति में जो महत्वपूर्ण योगदान किया है और कर रहे हैं कि उस पर पानी न फिर जाय । और फिर कुछ नेतागीरी का भी नशा होता है । वरना अपनी सत्ता का मोह होना, अपने स्वत्वों, परम्पराओं एवं संस्कृति के संरक्षण में प्रयत्नमान रहना तो कोई अपराध नहीं है वह तो सर्वथा उचित एवं श्रेष्ठ कर्तव्य है, केवल यह ध्यान रखना उचित है कि देश और राष्ट्र के महान हितों से कही कोई विरोध न हो और किसी अन्य समुदाय से किसी प्रकार का द्वेष या वैमनस्य न हो, सह अस्तित्व का भाव ही प्रधान हो और समष्टि के बीच व्यष्टि भी निर्विरोध रूप से अपना सम्मानपूर्ण अस्तित्व बनाये रख सके ।
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अस्तु, इस सम्पूर्ण विवेचन से यही निष्कर्ष निकलता है कि भले ही मूलतः हिन्दू शब्द विदेशी हो, अर्वाचीन हो, देशपरक एवं जातीयता सूचक हो, उसका रूढ़ अर्थ, जो अनेक कारणों लोक प्रचलित हो गया है, एक धर्मपरम्परा विशेष के अनुयायी ही हैं और अनका धर्म हिन्दूधर्म है । हिन्दू और भरतीय - दोनों शब्द पर्यायवाची नहीं हैं • कम से कम भारत के भीतर नहीं हैं, भारत के बाहर तो भारतीय मुसलमानों को भी कभी-कभी हिन्दू कहा गया है। जिस प्रकार भारत के बौद्ध, सक्ख, पारसी, ईसाई, मुसलमान, यहूदी, ब्रह्मसमाजी आदि भारतीय तो हैं किन्तु हिन्दू नहीं, उसी प्रकार जैन भी भरतीय तो हैं, बल्कि जितना भी पूर्णतया कोई अन्य समुदाय किसी भी दृष्टि से भारतीय हो सकता है उससे कुछ अधिक हैं, वे जिन अर्थों में आज हिन्दू शब्द रूढ़ हो गया है उन अर्थों में हिन्दू नहीं हैं । शब्द का जो रूढ़ और प्रचलित अर्थ होता है वही मान्य किया जाता है-किसी समय 'पाखण्ड' शब्द का अर्थ 'धर्म' होता था, किन्तु आज ढोंग, झूठ और फरेब होता है, अतः यदि आज किसी धर्म को पाखण्ड कह दिया जाय तो भारी उत्पात हो जाय। इस प्रकार के अन्य अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं ।
हिन्दू और जैन शब्दों के भी जो अर्थ लोक प्रचलित हैं जनसाधारण द्वारा समझे जाते हैं, उन्हीं की दृष्टि से इस समस्या पर विचार किया जाना उचित है ।
'तन सुखराय स्मृति ग्रन्थ' से साभार
'अप्रैल 2005 जिनभाषित 15
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