Book Title: Jinabhashita 2003 05
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 2
________________ सुशीलता आचार्य श्री विद्यासागर जी शील से अभिप्राय स्वभाव से है। स्वभाव की उपलब्धि एक थानेदार को उस पर तरस आ गया और उसने उस भिक्षुक को के लिए निरतिचार व्रत का पालन करना ही रोटी देने के लिए बुलाया। पर भिक्षुक थोड़ा आगे जा चुका था "शीलव्रतेष्वनतिचार" कहलाता है। व्रत से अभिप्राय नियम, इसलिए उसने एक नौकर को रोटी देने भेज दिया। मैं रिश्वत का कानून अथवा अनुशासन से है। जिस जीवन में अनुशासन का अन्न नहीं खाता भइया!' ऐसा कहकर वह भिक्षुक आगे बढ़ गया। अभाव है वह जीवन निर्बल है। निरतिचार व्रत पालन से एक नौकर ने वापिस आकर थानेदार को भिक्षुक द्वारा कही गयी बात अद्भुत बल की प्राप्ति जीवन में होती है। निरतिचार का मतलब सुना दी और वे शब्द उस थानेदार के मन में गहरे उतर गये। उसने ही यह है कि जीवन अस्त-व्यस्त न हो, शान्त और सबल हो। सदा-सदा के लिए रिश्वत लेना छोड़ दिया। भिक्षुक की प्रतिज्ञा ने, रावण के विषय में यह विख्यात है कि वह दुराचारी था, उसके निर्दोष व्रत ने थानेदार की जिन्दगी सधार दी। जो लोग किन्तु वह अपने जीवन में एक प्रतिज्ञा में आबद्ध भी था। उसका गलत तरीके से रुपये कमाते हैं, वे दान देने में अधिक उदारता व्रत था कि वह किसी नारी पर बलात्कार नहीं करेगा, उसकी दिखाते हैं। वे सोचते हैं कि इसी तरह थोड़ा धर्म इकट्ठा कर इच्छा के विरुद्ध उसे नहीं भोगेगा और यही कारण था कि वह लिया जाय, किन्तु धर्म ऐसे नहीं मिलता। धर्म तो अपने श्रम से सीता का हरण तो कर लाया, किन्तु उनका शील भंग नहीं कर निर्दोष रोटी कमा कर दान देने में ही है। पाया। इसका कारण केवल उसका व्रत था. उसकी प्रतिज्ञा थी। अंग्रेजी में कहावत है कि मनुष्य केवल रोटी से नहीं यद्यपि यह सही है कि यदि वह सीताजी के साथ बलात्कार का जीता, उससे भी ऊँचा एक जीवन है जो व्रत साधना से उसे प्राप्त हो प्रयास भी करता तो भस्मसात् हो जाता किन्त उसी प्रतिज्ञा ने उसे सकता है। आज हम मात्र शरीर के भरण-पोषण में लगे हैं। व्रत, ऐसा करने से रोक लिया। नियम और अनुशासन के प्रति भी हमारी रुचि होनी चाहिये। ये निरतिचार' शब्द बड़े मार्के का शब्द है । व्रत के पालन अनुशासन-विहीन व्यक्ति सबसे गया बीता व्यक्ति है। अरे भइया! में यदि कोई गड़बड़ न हो, तो आत्मा और मन पर एक ऐसी गहरी तीर्थंकर भी अपने जीवन में व्रतों का निर्दोष पालन करते हैं। हमें छाप पड़ती है कि खुद का तो निस्तार होता ही है, अन्य भी जो इस भी करना चाहिए। व्रत और व्रती के सम्पर्क में आ जाते हैं बिना प्रभावित हुये रह नहीं हमारे व्रत ऐसे हों जो स्वयं को सुखकर हों और दूसरों को सकते। जैसे कस्तूरी को अपनी सुगन्ध के लिए किसी तरह की भी सुखकर हों। एक सज्जन जो संभवतः ब्राह्मण थे, मुझसे कहने प्रतिज्ञा नहीं करनी पड़ती, उसकी सुगन्ध तो स्वतः चारों ओर लगे- 'महाराज, आप बड़े निर्दयी हैं। देने वाले दाता का आप व्याप्त हो जाती है, वैसी ही इस व्रत की महिमा है। आहार नहीं लेते । तो मैंने उन्हें समझाया-'भइया ! देने वाले और 'अतिचार' और 'अनाचार' में भी बड़ा अन्तर है। लेने वाले दोनों व्यक्तियों के कर्म का क्षयोपशम होना चाहिये। 'अतिचार' दोष है जो लगाया नहीं जाता, प्रमादवश लग जाता है। दाता का तो दानान्तराय कर्म का क्षयोपशम होना आवश्यक है, पर किन्तु अनाचार तो सम्पूर्ण व्रत को विनष्ट करने की क्रिया है। लेने वाले का भी भोगान्तराय कर्म का क्षयोपशम होना चाहिए। मुनिराज निरतिचार व्रत के पालन में पूर्ण सचेष्ट रहते हैं । जैसे कई दाता लेने वाले के साथ जबर्दस्ती नहीं कर सकता क्योंकि लेने चुंगी चौकियाँ पार कर गाड़ी यथास्थान पहुँच जाती है, उसी प्रकार वाले के भी कुछ नियम, प्रतिज्ञायें होती हैं। जिन्हें पूरा करके ही मुनिराज को भी बत्तीस अन्तराय टालकर निर्दोष आहार और अन्य वह आहार ग्रहण करता है। उपकरण आदि ग्रहण करने पड़ते हैं। BETE सारांश यही है कि सभी को कोई न कोई व्रत अवश्य लेना निरतिचार व्रत पालन की महिमा अद्भुत है। एक चाहिये, वे व्रत-नियम बड़े मौलिक हैं। सभी यदि व्रत ग्रहण भिक्षुक था। झोली लेकर एक द्वार पर पहुँचा रोटी माँगने । रूखा करके उनका निर्दोष पालन करते रहें, तो कोई कारण नहीं कि जवाब मिलने पर भी नाराज नहीं हुआ, बल्कि आगे चला गया। सभी कार्य सफलतापूर्वक सम्पन्न न हों। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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