Book Title: Jinabhashita 2003 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 2
________________ समीचीन धर्म आचार्य कुंदकुंद के रहते हुए भी आचार्य समन्तभद्र का महत्त्व एवं लोकोपकार किसी प्रकार कम नहीं है। हमारे लिए आचार्य कुंदकुंद पितातुल्य हैं और आचार्य समन्तभद्र करुणामयी माँ के समान हैं। वहीं समन्तभद्र आचार्य कहते हैं कि देशायामि सभीचीनं धर्म कर्मनिवर्हणम्, संसार दुःखतः सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुरवे । अर्थात् मैं समीचीन धर्म का उपदेश करूँगा। यह समीचीन धर्म कैसा है?‘कर्मनिवर्हणम्' अर्थात् कर्मों का निर्मूलन करने वाला है और 'सत्त्वान्' प्राणियों को संसार के दुखों से उबारकर उत्तम सुख में पहुँचाने वाला है आचार्य श्री ने यहाँ 'सत्त्वान्' कहा, अकेला 'जैनान्' नहीं कहा। इससे सिद्ध होता है कि धर्म किसी सम्प्रदायविशेष से संबंधित नहीं है। धर्म निर्बन्ध है, निस्सीम है, सूर्य के प्रकाश की तरह। सूर्य के प्रकाश को हम बंधनयुक्त कर लेते हैं दीवारें खींचकर, दरवाजे बनाकर, खिड़कियाँ लगाकर इसी तरह आज धर्म के चारों ओर भी सम्प्रदायों की दीवारें, सीमाएँ खींच दी गयी हैं। गंगा नदी हिमालय से प्रारम्भ होकर निर्बाध गति से समुद्र की ओर प्रवाहित होती है। उसके जल में अगणित प्राणी किलोलें करते हैं उसके जल से आचमन करते हैं, उसमें स्नान करते हैं उसका जल पीकर जीवन रक्षा करते हैं, अपने पेड़ पौधों को पानी देते हैं, खेतों को हरियाली से सजा लेते हैं। इस प्रकार गंगा नदी किसी एक प्राणी, जाति अथवा सम्प्रदाय की नहीं है, वह सभी की है। यदि कोई उसे अपना बतावे तो गंगा का इसमें क्या दोष? ऐसे ही भगवान् वृषभदेव अथवा भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित धर्म पर किसी जातिविशेष का आधिपत्य संभव नहीं है यदि कोई आधिपत्य रखता है, तो यह उसकी अज्ञानता है। धर्म और धर्म को प्रतिपादित करने वाले महापुरुष सम्पूर्ण लोक की अक्षयनिधि हैं। महावीर भगवान् की सभा में क्या केवल जैन ही बैठते थे? नहीं, उनकी धर्मसभा में देव, देवी, मनुष्य, स्त्रियाँ, पशुपक्षी सभी को स्थान मिला हुआ था। अत: धर्म किसी परिधि से बँधा हुआ नहीं है, उसका क्षेत्र प्राणी मात्र तक विस्तृत है। Jain Education International आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज आचार्य महाराज अगले श्लोक में धर्म की परिभाषा का विवेचन करते हैं, वे लिखते हैं कि दृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म, धर्मेश्वना विदुः । यदीयप्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः ॥ अर्थात् (धर्मेश्वरा) गणधर परमेष्ठी (सद्दृष्टि ज्ञानवृत्तानि) समीचीन दृष्टि, ज्ञान और सद्भचरण के समष्टि रूप को (धर्म विदुः) धर्म कहते हैं। इसके विपरीत अर्थात् मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र (भवपद्धतिः भवन्ति) संसार पद्धति को बढ़ाने वाले हैं। सम्यग्दर्शन अकेला मोक्षमार्ग नहीं है किंतु सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का समन्वित रूप ही मोक्षमार्ग है। वही धर्म है। औषधि पर आस्था, औषधि का ज्ञान और औषधि को पीने से ही रोगमुक्ति संभव है। इतना अवश्य है कि जैनाचार्यों ने सद्दृष्टि पर सर्वाधिक बल दिया है यदि दृष्टि में विकार है तो निर्दिष्ट लक्ष्य को प्राप्त करना असंभव ही है। कार, चाहे कितनी अच्छी हो, वह आज ही फैक्टरी से बनकर बाहर क्यों न आयी हो, किंतु यदि उसका चालक मदहोश है, तो वह गंतव्य तक पहुँच नहीं पायेगी। वह कार को कहीं भी टकराकर चकनाचूर कर देगा चालक का होश ठीक होना अनिवार्य है, तभी मंजिल तक पहुँचा जा सकता है इसी प्रकार मोक्षमार्ग का पथिक जब तक होश में नहीं है, जब तक उसकी मोह नींद का उपशमन नहीं हुआ, तब तक लक्ष्य की सिद्धि अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। मिथ्यात्व का विकार, दृष्टि से निकलना चाहिये, तभी दृष्टि समीचीन बनेगी, और तभी ज्ञान भी सुज्ञान बन पायेगा। फिर रागद्वेष की निवृत्ति के लिए चारित्र - मोहनीय के उपशम से आचरण भी परिवर्तित करना होगा, तब मोक्षमार्ग की यात्रा निर्बाध पूरी होगी। ज्ञान-रहित आचरण लाभप्रद न होकर हानिकारक ही सिद्ध होता है। रोगी की परिचर्या करने वाला यदि यह नहीं जानता कि रोगी को औषधि का सेवन कैसे कराया जाए, तो रोगी का जीवन ही समाप्त हो जायेगा। अतः समीचीन दृष्टि, समीचीन ज्ञान और समीचीन आचरण का समष्टि रूप ही धर्म है यही मोक्षमार्ग है। 'समग्र' (चतुर्थखण्ड) से साभार For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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