Book Title: Jinabhashita 2001 12
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 9
________________ पं. पन्नलाल जी साहित्याचार्य)। यह मुनि से नीचे के मोक्षसाधकों [ न मानकर संयम का उपकरण (साधन) मानते हैं। इसे दिगम्बरमत के प्रति विनय प्रकट करने का एक तरीका है। यह 'वंदना' और | अमान्य करता है। आर्यिका मध्यमपात्र है, मुनि उत्तमपात्र- 'यतिः 'नमोऽस्तु' शब्दों में गर्भित भक्तिभाव या समर्पणभाव का सूचक | स्यादुत्तमं पात्रं' (सा.ध. 5/44, बारसाणुवेक्खा 17, पद्म, पंचविंश. नहीं है। यदि होता तो इस पृथक् शब्द के प्रयोग की आवश्यकता 2148)। आर्यिका साक्षात् मोक्षमार्गी नहीं होती, मुनि साक्षात् ही क्यों होती? यह शब्द सग्रन्थलिंगियों के प्रति सामान्य सम्मानभाव मोक्षमार्गी होता है। आर्यिका पुरुष को मुनिदीक्षा नहीं दे सकती, प्रकट करने के उद्देश्य से निर्धारित किया गया है। इसलिये वह गुरु नहीं है, मुनि दे सकता है इसलिये वह गुरु है। सवस्त्र अतः यदि आर्यिकादि की वन्दना-स्तुति न की जाय, न ही | होने के कारण आर्यिका गृहलिंगी या सागारलिंगी है, मुनि जिनलिंगी उनसे मोक्ष की कामना की जाय, केवल इच्छाकार के द्वारा विनय | या अनगारलिंगी, जैसा कि आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है - निवेदित करते हुए उन्हें श्रीफल, अर्घ या अष्टद्रव्य समर्पित किये जायँ, तम्हा दुहित्तु लिंगे सागारणगारएहिं वा गहिए।(स.सा.411) तो यह दिक्पालादि देवों की पूजा की तरह भक्तिरूप पूजा नहीं होगी, पाखंडीलिंगेसु व गिहिलिंगेसु वा बहुप्पयारेसु। (स.सा. मात्र सम्मान रूप पूजा होगी। इससे आगम का विरोध नहीं होता। इस 413) प्रकार आर्यिका, एलक और क्षुल्लक सम्मानपूजा के पात्र हैं, भक्तिपूजा ववहारिओ पुण णओ दोण्णिवि लिंगाणि भणइ के नहीं। इसके कारणों पर आगे प्रकाश डाला जा रहा है। मोक्खपहे। (स.सा. 414) पूजाविधि में पात्रानुसार विशेषता इन गाथाओं में आचार्य कुन्दकुन्द ने मोक्षमार्ग में दो ही लिंग (मोक्षमार्ग में दीक्षित मनुष्यों के वेश) बतलाये हैं : सागार और मनुष्य की सम्माननीयता या पूजनीयता के स्तर के अनुसार उसकी पूजाविधि का स्तर साधारण या असाधारण होता है। पूजाविधि अनगार अथवा मुनिलिंग एवं गृहिलिंग। के स्तर की साधारणता-असाधारणता से ही सम्माननीयता का स्तर आचार्य अमृतचन्द्र ने भी 'श्रमण' और 'श्रमणोपासक' के भेद सूचित होता है। यदि परमसम्माननीय की पूजाविधि का स्तर से दो ही लिंगों का कथन किया है - 'यः खलु श्रमण-श्रमणोपासकभेदेन अल्पसम्माननीय की पूजाविधि के समान हो, तो उसकी परमसम्मा द्विविधं द्रव्यलिङ्ग मोक्षमार्ग इति प्ररूपणप्रकारः।" (स.सा./आ. ननीयता द्योतित नहीं होगी, अपितु वह अल्प सम्माननीय सिद्ध होगा, 414) जिससे उसका सम्मान न होकर अपमान होगा। मनुष्य की जयसेनाचार्य ने इन दो लिंगों का स्वरूप इस प्रकार बतलाया सम्माननीयता का स्तर उसके पद और गुण के द्वारा निर्धारित होता | है- 'निर्विकारशुद्धात्मसंवित्तिलक्षणभावलिङ्गसहितं निर्ग्रन्थयतिलिङ्ग है। गुरु और शिष्य, उपास्य और उपासक, स्वामी और सेवक, राजा कौपीनकरणादिबहुभेदसहितं गृहिलिङ्ग चेति द्वयमपि मोक्षमार्गे व्यवऔर राजकर्मचारी के गुण और पद परस्पर उच्च-निम्न होते हैं, अत: हारनयो मन्यते।' (स.सा./ता.वृ. 414) उनकी सम्माननीयता का स्तर भी उच्च-निम्न होता है, इसलिये उनके । अर्थात् निर्विकार शुद्धात्मानुभूतिरूप भावालिंग सहित निम्रन्थ सम्मान की विधियाँ भी उच्च-निम्न होती हैं। (नग्न) लिंग मुनिलिंग है और लँगोटी लगाना आदि अनेक भेदरूप गृहिलिंग है। मुनि और आर्यिकादि के पद उच्च-निम्न यहाँ स्पष्ट शब्दों में निर्ग्रन्थ (नग्न) लिंग को मुनिलिंग और मुनि का पद आर्यिका, एलक और क्षुल्लक के पदों से उच्च सग्रन्थ (सवस्त्र) लिंग को गृहिलिंग कहा गया है। इससे यह निर्विवाद होता है और आर्यिकादि के पद मुनिपद से निम्न। आर्यिका । है कि क्षुल्लक, एलक और आर्यिका के लिंग गृहिलिंग या सागारलिंग उपचारमहाव्रती होती है, मुनि यथार्थ महाव्रती। उपचारमहाव्रत उन | हैं, क्योंकि वे वस्त्रधारी होते हैं। बाह्य महाव्रतों को कहते हैं जो भावमहाव्रतों के अभाव में वास्तव केवल मुनि का निर्ग्रन्थ लिंग जिनलिंग है। क्षुल्लक, एलक और में महाव्रत नहीं होते, अपितु जिन्हें सादृश्यवश महाव्रत नाम दिया | आर्यिका के लिंग जिनलिंग नहीं है। किन्तु कुछ आधुनिक विद्वानों ने जाता है। आर्यिका के पंचमगुणस्थान होता है, मुनि के षष्ठादि क्षुल्लकादि के सवस्त्रलिंग को भी जिनलिंग मान लिया है (देखिये गुणस्थान। आर्यिका के भावसंयम नहीं होता, मुनि के होता है- "न पुस्तक 'क्या आर्यिका माताएँ पूज्य हैं? पृष्ठ 18-20)। यह सर्वथा तासां भावसंयमोऽस्ति, भावासंयमाविनाभाविवस्त्राद्युपादानान्यथानुप | आगम-विरुद्ध है। आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा हैपत्तेः" (धवला, पुस्तक 1, सूत्र 93)। आर्यिका सग्रन्थ (वस्त्रपरि एक्कं जिणस्स रूवं बीयं उक्किट्ठसावयाणं तु। ग्रहयुक्त) होती है, मुनि निर्ग्रन्थ (नग्न)। निर्वस्त्र रहने पर स्त्री के लिए अवरट्ठियाण तइयं चउत्थं पुण लिंगदंसणं णत्थि।। लज्जा एवं जुगुप्सा परीषहों का सहन और ब्रह्मचर्यव्रत की रक्षा संभव (दंसणपाहुड, 18) नहीं है। इसलिए वह वस्त्रधारण करने की इच्छा का परित्याग नहीं अर्थात् लिंग तीन ही हैं : एक तो जिनरूप, दूसरा उत्कृष्ट श्रावकों कर सकती। इसी कारण आगम में आर्यिका के लिए सवस्त्र लिंग | (क्षुल्लक-एलक) का रूप और तीसरा आर्यिकाओं का रूप। इनके निर्धारित किया गया है। अतः वह वस्त्रेच्छारूप आभ्यन्तर परिग्रह | अलावा चौथा लिंग नहीं है। एवं वस्त्रग्रहणरूप बाह्य परिग्रह से युक्त होती है, किन्तु मुनि इन दोनों | यहाँ रूप और लिंग पर्यायवाची हैं, अत: जिनलिंग का अर्थ परिग्रहों से मुक्त होता है। श्वेताम्बरमत में सवस्त्रमुक्ति मानी गई | जिनेन्द्र भगवान् जैसा नग्न रूप है। टीकाकार श्रुतसूरि ने कहा भी हैहै, इसलिए वे साधु-साध्वियों द्वारा धारण किये गये वस्त्रों को परिग्रह | "एकमद्वितीयं जिनस्य रूपं नग्नरूपम्।' निम्नलिखित कथन से भी दिसम्बर 2001 जिनभाषित 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36