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समाज संस्था की दायित्व हीनता
में कार्य करते थे। आज से बीस वर्ष पूर्व तक सामाजिक पाठशालाओं व्यक्ति के समग्र विकास का दायित्व समाज पर होता है लेकिन | का प्रचलन रहा, जिसके कारण सामाजिक प्रतिबद्धता, धार्मिक ज्ञान जब वही समाज कानून, धर्म, जाति, धन, परम्परा, अकर्मण्यता एवं एवं समन्वय की धारा निरन्तर चलती रही। आज पाठशालाओं के स्वार्थ के आगे विवश हो जाये, तो समाज के प्रति आम जन की अभाव के कारण संस्कारों की कमी आयी है और प्रारंभिक समन्वय, निष्ठा खण्डित होती है। आज समाज में अशिक्षा व्याप्त है, शिक्षित सहयोग और अपनत्व की घुट्टी अब प्रारंभ में नहीं मिलती जो दीर्घ बेरोजगार हैं, विद्यालयों की कमी है, ग्रामीणों के पास मूलभूत जीवन में समन्वय का आधार बनती है। सुविधाओं का अभाव है, दहेज प्रथा, बाल विवाह जैसी कुरीतियों दूषित खानपान के कारण अनेक लड़कियाँ या तो बेमेल विवाह के अभिशाप को जीवन
सम्पूर्ण देश आज खानपान की दृषितता के बढ़ते प्रभाव से भर भोगती हैं या सास, ससुर, ननद आदि की मानसिक एवं शारीरिक
आक्रान्त है। परम्परागत रसोई घरों की पहचान अब साधुओं के चौकों प्रताड़ना को सहती हैं। पुरावैभव के प्रतीक मन्दिरों/तीर्थों की
के अवसर पर ही दिखाई देती है। चप्पल संस्कृति का रसोई घर में जर्जरावस्था, अनैतिकता का बोलबाला तथा धन सम्पन्नों की
प्रवेश, रेडीमेड अमर्यादित भोज्य पदार्थों का घर में आना, स्वाद की स्वार्थान्धता के आगे विवश, बलात्कृत जन जब निराकरण हेतु
लोलुपता और आहारदान के प्रति घटती आस्था इन सबने सामाजिक समाजाभिमुख होता है और समाज की उपेक्षा एवं दायित्वहीनता की
समन्वय को खण्डित किया है। आज हमारे सामाजिक समन्वय का स्थिति पाता है, तो वह समाज को ही नकारने लगता है। यह स्थिति
भोज्य आधार चाय है जिसमें दूध कम पानी ज्यादा है अतः ठोस ठीक वैसी है जैसे कि -
आधार के बिना समन्वय का विराट आधार कैसे तैयार किया जा सकता ___ मेले में भटके होते तो कोई घर पहुँचा जाता।
हम घर में भटके हैं अपने कैसे ठौर-ठिकाने आयेंगे। जैन शिक्षा का दुर्बल आर्थिक पक्ष
पंच कल्याणक, गजरथों की बदलती भूमिकाएँ
पंचकल्याणक एवं गजरथ महोत्सव, उत्सव कम रह गये हैं वर्तमान युग धन का युग है। एक कथन है कि जिनके हाथों
जबकि अधिक हो रहे हैं। पूर्व में कहीं सुनते थे कि पंचकल्याणक है में अर्थशास्त्र (धन की महत्ता) की पुस्तक होती है वे धर्मशास्त्र नहीं
तो लोग खान-पान का सामान एवं बिस्तर बाँधकर बड़े उत्साह से समझते। एक ओर बिडम्बना है कि जैन शिक्षा की पर्याप्त व्यवस्था
चले आते थे, किन्तु आज जबकि इनका व्यक्तिवादी रूप पूरी तरह नहीं है, दूसरी ओर जिन्होंने जैन शिक्षा प्राप्त की है वे उसके आधार पर भरणपोषण नहीं कर सकते। जो समाज अपने ही व्यक्ति को अपने
समाज में बदला है, क्योंकि अब ये महोत्सव सम्पूर्ण समाज के पैसों ही धर्म का विशेष ज्ञान प्राप्त होने पर रोजगार नहीं दे सकता, वह
से होते हैं, समाज निष्ठा एवं जागृति को उपस्थित नहीं करते। ये व्यक्ति भी उस समाज के साथ उस सीमा तक तालमेल नहीं रख
आयोजन धार्मिक कम तमाशाई आधिक हो गये हैं। परिणामतः पाता, जितना कि होना चाहिए। आज जैनदर्शन में स्वर्णपदक प्राप्त
पंचकल्याणक को लोग पंचों के कल्याणक, गजरथ को मानरथ से आचार्य-उपाधिधारी व्यक्ति भी नौकरी के लिए समाज से कोई सहयोग
अभिहित करने लगे हैं। इनसे धर्म दूर हुआ है। राजनेताओं के भाषण, प्राप्त नहीं करता तथा इन्हीं उपाधियों के सहारे वह अन्य शासकीय
श्रृंगारिक उत्तेजक कवि सम्मेलन, अशुचिता का सर्वत्र योग, मूर्तियों सेवाओं में भी नहीं जा सकता। ये स्थितियाँ व्यक्ति को समाज से
में बढ़ोत्तरी एवं पंचदिवसीय सामाजिक धन का लाखों करोड़ों में सम्बद्ध नहीं रहने देती। समाज जैन विद्वानों की जो उपेक्षा करता है,
अपव्यय, धनप्राप्ति हेतु बोलियों, लाटरियों का प्रयोग, पक्षपात, उसे देखकर कई शिक्षित जन दर्द के साथ कहते हैं कि 'यह तो अच्छा
आदि ने इन आयोजनों के प्रति आम समाज की निष्ठा एवं समन्वय है कि हमें समाज की गुलामी नहीं करनी पड़ रही है। जहाँ अपने ही
को तोड़ा है। मेरा विश्वास है कि यदि एक वर्ष के लिये पंचकल्याणक समाज का कर्णधार गुलाम की स्थिति में हो, वहाँ सामाजिक प्रतिबद्धता
गजरथ महोत्सव बन्द कर दिये जायें तो समाज में सौ डिग्री कालेज कैसे सुनिश्चित की जा सकती है?
संचालित किये जा सकते हैं, हजारों असहायों को रोजागार के साधन नारियों में धार्मिक शिक्षा का अभाव
प्रदान किये जा सकते हैं। इससे जो विराट समन्वय का मार्ग बनेगा,
वह गजरथ फेरी की पग डण्डियों से अधिक मजबूत होगा। किसी भी समाज का आधारभूत ढाँचा महिलाओं पर निर्भर रहता
स्वाध्याय एवं समय का अभाव है, किन्तु हमारे समाज की महिलाओं में धार्मिक शिक्षा का अभाव है। एक ओर धार्मिक शिक्षा का अभाव दूसरी ओर धर्म के प्रति परम
स्वाध्याय की प्रवृत्ति की समाप्ति के कारण सामाजिक दायित्व श्रद्धाभाव उनमें है, किन्तु मैंने स्वयं ऐसा अनुभव किया है कि उन्हें
एवं धर्म को समझने का मार्ग लगभग बन्द हो गया है। जिन पुराणों धार्मिक अशिक्षा के कारण कई बार कपटपूर्ण व्यवहार का सामना करना
के आख्यानों से व्यक्ति प्रभावित होकर सामाजिक बनता था उनसे पड़ता है। धार्मिक अनुष्ठान, सिद्धि, तंत्र-मंत्र, आशीर्वाद के लालच अब परिचय ही नहीं होता। यही कारण है कि अब हिंसा, अहिंसा के में वे वह सब करने पर विवश हो जाती हैं, जिसे धार्मिक ठगी या बीच की विभाजक रेखा टूटी है। बढ़ती व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा एवं शोषण कह सकते हैं। आज अनेक संघों के संचालकों में मात्र युवा | बढ़ती आर्थिक माँगों के कारण समयाभाव की परिस्थितियाँ सर्वत्र हैं महिलाओं का होना एक नहीं अनेक प्रश्नों को जन्म देता है, जिससे जिससे व्यक्ति का सामाजिक जुड़ाव कम हुआ है। अब समन्वय की समन्वय का मार्ग दूषित ही होता है।
मात्र लिफापाई संस्कृति चल रही है, जिसमें क्या भेजा और किसने पाठशालाओं का अभाव
भेजा मात्र सूची तक ही सीमित हो गये हैं, समन्वय की आत्मीयता प्राचीन समय में गुरुकुल सामाजिक, सांस्कृतिक केन्द्र के रूप | इसमें कहाँ ? 26 दिसम्बर 2001 जिनभाषित -
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