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वर्तमान सामाजिक असमन्वय के कारण
और उनका निराकरण
डॉ. सुरेन्द्रकुमार जैन 'भारती' मनुष्य एक सामाजिक प्राणी
वर्णव्यवस्था का जातीयकरण । जहाँ समाज और समाजवाद दोनों अपनी निष्ठा/ है, जिसका अस्तित्व समाज पर ही
भगवान ऋषभदेव द्वारा वर्ण निर्भर करता है। मनुष्य के समाज प्रतिष्ठा खो रहे हों और सामाजिक परिस्थितियाँ क्षण
व्यवस्था की कर्मानुसार संरचना बनने की प्रथम शर्त है सहयोग, प्रतिक्षण बदल रही हों, वहाँ समन्वय की अत्यंत
करके क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र वर्ण की जिसे समन्वय, सौहार्द और सह | आवश्यकता है। किन्तु जैसा समन्वय होना चाहिए वैसा
| स्थापना हुई थी जिसमें संशोधन कर अस्तित्व की भावना पूर्णता प्रदान देखने में नहीं आ रहा है। इसके कारण क्या हैं और उनका महाराज भरत ने ब्राह्मण वर्ण की सृष्टि करते हैं। जिस प्रकार एक जैसे पेड़ों
निराकरण क्या है, इसका सूक्ष्म और गहन अन्वेषण | की, किन्तु यह कर्मानुसार ही थी। का समूह जंगल नहीं कहलाता,
विद्वान लेखक और 'जिनभाषित' के सहयोगी सम्पा- I 'उत्तराध्ययन सूत्र' के अनुसार - बल्कि उसमें छोटे-बड़े, कृश एवं
कम्मुणा बम्हणो होई, कम्मुणा दक डॉ. 'भारती' ने किया है। स्थूल सभी जातियों, वर्गों एवं वर्णों
होई खत्तियो। वाले पेड़-पौधे सम्मिलित होते हैं,
कम्मुणा वेस्सयो होई, कम्मुणा होई सूद्दयो।। उसी प्रकार एक जैसे, एक रंग वाले, एक ही लम्बाई - चौड़ाई एवं
अर्थात् कर्म से व्यक्ति ब्राह्मण होता है, कर्म से क्षत्रिय होता प्रवत्ति वाले मनुष्यों का नाम समाज नहीं, बल्कि जहाँ सम्पूर्ण | है. कर्म से वैश्य होता है और कर्म से शुद्र होता है। विभिन्नता के होते हुए भी परस्पर समन्वय, सहयोग एवं सह अस्तित्व
जब तक यह व्यवस्था चलती रही सामाजिक समन्वय भी की भावना के साथ मनुष्य रहते हैं, उसे समाज कहते हैं। ऐसा ही
चलता रहा, किन्तु जब वर्ण-व्यवस्था का आधार कर्म न होकर जन्म समाज गतिमय एवं प्रगतिशील कहलाता है। कहते हैं कि एक ही
हो गया तो जातिवाद का विकास हुआ। हर एक जाति दूसरी जाति परिवार और रक्त समूह के लोग भी भिन्न-भिन्न प्रकृति और आदतों
को छोटा-बड़ा मानने लगी। नृतत्त्वशास्त्रियों का मत है कि भारत में या तासीर वाले होते हैं। डोडे में से निकला रस, जो अफीम कहलाता | अनेक जातियाँ हैं और उनकी विशेषता यह है कि उनमें से हर जाति है, इतना घातक और मादक होता है कि सेवन करने वालों को नाकारा
दूसरे को निम्न समझती है। कालान्तर में जातीय श्रेष्ठता ने सामाजिक सुस्त बनाता है और मौत भी ला सकता है और डोडे में से निकली
समन्वय को क्षति पहुँचायी और दस्सा, बीसा, परवार, गोलापूर्व, खसखस (पोस्तादाना) मस्तिष्क के लिये लाभदायक होती है। इसी
खण्डेलवाल, बघेरवाल, जैसवाल, हूमड़, पद्मावती पोरवाल आदि प्रकार समाज में भी विभिन्न वर्ण, वर्ग एवं विचारधारा के लोग होते
उपजातियों को बल मिला और फिर पिण्डशुद्धि के नाम पर जो जातियों हैं, किन्तु उनमें समन्वय हो तो वे एकरूप दिखाई देते हैं। बीसवीं
का ध्रुवीकरण हुआ उसने समाज में कटुता को वृद्धिंगत किया तथा सदी में सामाजिक संरचना में अनेकानेक परिवर्तन आये हैं। एक ओर
एक-दूसरे को निम्न समझने की भावना पनपी और एक संकुल वाला समाज व्यक्तिगत आकांक्षाओं की पूर्ति में असफल रहा है, वहीं स्वयं
समाज अनेक हिस्सों में बँट गया। की प्रधानता को बनाये रखने में अक्षम साबित हुआ है। धनाश्रयता
आर्थिक पक्ष पर बल ने समाज को पंगु बना दिया है, जिसे एक या कुछ व्यक्ति अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिये उपयोग करते हैं, दूसरी ओर व्यक्तिवाद के
किसी भी स्वस्थ समाज के लिए धनसम्पन्नता बुरी नहीं मानी व्यामोह ने समाज और सामाजिकता को नकार दिया है। समाज का
जाती, किन्तु जब यही धन नीति और नियन्ता का आधार बनकर लघु रूप संयुक्त परिवार टूटे हैं, टूट रहे हैं, यहाँ तक कि नितान्त
'सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रमयन्ते' की शैली अख्तियार कर ले तो व्यक्तिवाद ने 'हम दो-हमारे दो' के साथ 'हम दो-हमारे दो' के भी
समन्वय कैसे रह सकेगा? आज सभी पंचकल्याणक, गजरथ दो यानी माता-पिता को निरीह और अकेला बना दिया है। ऐसे में
महोत्सवों, महामस्तकाभिषेकों आदि में धन - सम्पन्न लोग ही उच्च समाज और सामाजिकता को बचा पाना असंभव हुआ है। आज की
पद एवं सम्मान प्राप्त करते हैं, वहीं जिनके पास धनसम्पन्नता नहीं प्रवृत्ति पर आचार्य श्री विद्यासागर जी ने 'मूकमाटी' में लिखा है
है, वे हीन भावना से ग्रस्त हो मात्र दर्शक बन जाते हैं फलतः अमीर 'मैं पहले
और गरीब वर्ग बन गये हैं। अब खोटा कर्म करने वाला और खोटे
तरीकों से धनोपार्जन करने वाला श्रावक-शिरोमणि, भगवान के मातासमाज बाद में।'
पिता, चक्रवर्ती, इन्द्र बन सकता है, वहीं प्रतिदिन भगवान की पूजाआज समाज अपनी निष्ठा/प्रतिष्ठा खो रहा है और सामाजिक |
अर्चना करने वाला पुजारी हीन दृष्टि से देखा जाता है। अतः सामाजिक परिस्थितियाँ क्षण-प्रतिक्षण बदल रही हैं। अतः आज वहाँ समन्वय | समन्वय में कमी आयो है। 'तत्त्वार्थसूत्र' में कहा गया है - की अत्यंत आवश्यकता है, किन्तु जैसा समन्वय होना चाहिए वैसा
मोक्षमार्गस्य नेत्तारं, भेत्तारं कर्मभूभृताम्। देखने में नहीं आ रहा है, इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं
ज्ञातारं विश्व तत्त्वानां, वन्दे तद्गुणलब्धये।। 24 दिसम्बर 2001 जिनभाषित
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