Book Title: Jinabhashita 2001 12
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 7
________________ सम्पादकीय आर्यिका माता पूज्य, मुनि परमपूज्य एक प्रश्न उठाया गया है कि क्या आर्यिका माताएँ पूज्य है? | 2. 'प्रणामेनार्चित: नारदो मुनिः।' (हरिवश पु. 43/228) मेरा उत्तर है- अवश्य। 'पूजा' शब्द आदर - सम्मान का वाचक है, | 3. 'इच्छाकारादिना सम्यक् सम्पूज्य।' (पद्मपुराण 100/40) इसलिये किसी भी व्यक्ति की सम्मानविधि के लिये 'पूजा' शब्द का 4. 'वन्दनीया नमोऽस्तु-शब्द योग्याः ।' (सुत्तपाहुड, टीका 12) प्रयोग किया जा सकता है। यथा 5. 'वस्त्रादिभिः पूजयित्वा।' (र.क.श्रा. जयकुमार कथा) स्वगृहे पूज्यते मूर्खः स्वग्रामे पूज्यते धनी। 6. 'पूजितः आसनादिप्रदानेन।' (पद्मपुराण 102/3) स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते।। 7. 'आशीर्भिरम्यर्च्य ततः क्षितीन्द्रम्' (भट्टिकाव्य 1/24) अर्थात् मूर्ख की पूजा (सम्मान) अपने ही घर में होती है, धनवान् | सम्मानसामग्री का नाम अर्घ्य अपने ग्राम में ही पूजा जाता है, राजा की पूजा उसके देश तक ही भारतीय संस्कृति में अर्ध्य केवल देवपूजा का द्रव्य नहीं है, सीमित होती है, किन्तु विद्वान् सब जगह पूजा जाता है। अपितु अतिथिसत्कार की लोकप्रचलित सामग्री भी है। वैदिक संस्कृति मातङ्गो धनदेवश्च वारिषेणस्ततः परः। में इन आठ पदार्थों से अर्ध्य बनाया जाता है : जल, दुग्ध, कुशाग्र, नीली जयश्च सम्प्राप्ताः पूजातिशयमुत्तमम्।। दधि, घृत, तण्डुल, जौ और सरसों(र.क.श्रावकाचार) आपः क्षीरं कुशाग्रं च दधि सर्पिः सतुण्डलम्। अर्थात् यमपाल नामक चाण्डाल, धनदेव नामक व्यापारी, नीली यवः सिद्धार्थकश्चैव अष्टाङ्गोऽर्घः प्रकीर्तितः॥ नामक स्त्री तथा वारिषेण और जयकुमार नाम के राजकुमार अहिंसादि यह देवताओं और सम्मान्य व्यक्तियों दोनों को समर्पित किया अणुव्रतों के कारण पूजातिशय को प्राप्त हुए। जाता है। (आप्टे संस्कृत-हिन्दी कोश) इस तरह 'पूजा' शब्द का प्रयोग मूर्ख की आव भगत के लिये वस्तुतः स्वागतसत्कार की वस्तु का नाम अर्घ है। अत: यह भी हो सकता है, धनवान् के सम्मान के लिये भी, राजा के आदर जरूरी नहीं है कि वह आठ या अनेक द्रव्यों से मिलकर बने। कोई सत्कार के लिये भी, विद्वान् के अभिनन्दन के लिये भी, दिक्पालों एक द्रव्य भी अर्घ बन जाता है। कालिदास के 'मेघदूत' में निर्वासित के स्वागत के लिये भी, श्रावक, क्षुल्लक, एलक और आर्यिका के | यक्ष जब मेघ के द्वारा अपनी प्रिया को सन्देश भेजना चाहता है तब आदर-सम्मान के लिये भी और पंचपरमेष्ठियों की आराधना के लिये केवल कुटजपुष्पों के अर्घ से ही मेघ की पूजा करता हैभी। इतना ही नहीं, हम अपने सम्बन्धियों, मित्रों और अतिथियों का सः प्रत्यप्रैः कुटजकुसुमैः कल्पितार्घय तस्मै जो स्वागत-सत्कार करते हैं, वह भी पूजा ही कहलाता है। प्रीतः प्रीतिप्रमुखवचनं स्वागतं व्याजहार। पूजा की विधियाँ मल्लिनाथ यहाँ अर्घ की व्याख्या करते हुये कहते हैंविनय के निम्नलिखित उपचारों से आदर-सम्मान की | “कल्पितार्घाय कल्पितोऽनुष्ठितोर्घः पूजाविधिर्यस्मै तस्मै।" अर्थात् अभिव्यक्ति होती है, अतः ये पूजा की विधियाँ हैं 'अर्घ' पूजाविधि या पूजाद्रव्य का नाम है। राजगृही में समवशरण में 1. जुहार, नमस्कार, वन्दे, नमोऽस्तु, इच्छामि, इन | स्थित भगवान महावीर की पूजा के लिये मेंढक एक ही पुष्प मुँह में विनयसूचक शब्दों का उच्चारण, गुणस्तवन, जयजयकार करना, | दबाकर ले गया था। आशीर्वचन कहना, कुशल - क्षेम पूछना आदि। इससे सिद्ध है कि केवल देवपूजा की सामग्री अर्घ्य या अर्घ 2. हाथ जोड़ना, मस्तक झुकाना, पंचागनमन, अष्टांगनमन, | नहीं कहलाती, अपितु किसी के भी सत्कार की सामग्री का नाम अर्घ चरणस्पर्श, पादप्रक्षालन, पादोदक मस्तकारोहण, अभ्युत्थान, प्रद- | है, चाहे वह एक हो अथवा अनेक द्रव्यों का समूह, जलादि अष्टद्रव्य क्षिणीकरण, पैर दबाना आदि। हों या वस्त्राभूषणादि। 3. तिलक लगाना, माला पहनाना, श्रीफल भेंट करना, आरती, | इसलिए यदि आर्यिकादि को अर्घ चढ़ाया जाता है या अष्टद्रव्य उतारना, गन्धद्रव्य से सुवासित करना, उच्चासन, वस्त्राभूषण आदि अर्पित किये जाते हैं, तो इसका आगम से कोई विरोध प्रतीत नहीं प्रदान करना, दुग्धादि सेवन कराना, अभिषेक करना, अर्ध्य या अष्ट | होता, क्योंकि जब पंचकल्याणकादि पूजाओं में विघ्नविनाशनार्थ द्रव्य समर्पित करना आदि। आहूत किये गये दिक्पालादि को सम्मानित करने के लिये अष्ट इन पूजोपचारों का वर्णन आचार्यों ने इस प्रकार किया है- | द्रव्यात्मक अर्घ प्रदान किया जाता है. तब आर्यिका. एलक और 1. "गन्धपुष्पधूपाक्षतादिदानमर्हदाधुद्दिश्य द्रव्यपूजा। अभ्यु- क्षुल्लक तो उनसे गुणस्थान की अपेक्षा ऊँचे ही हैं। फिर आर्यिकाओं त्थान-प्रदक्षिणीकरण - प्रणमनादिका-कायक्रिया च। वाचा गुणस्तवनं का सम्मान करने के लिये हम उन्हें श्रीफल अर्पित करते ही हैं, बल्कि च।" (भग आरा./विज, 47) आजकल तो धर्मसभाओं में महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों के द्वारा उनके नाम -दिसम्बर 2001 जिनभाषित 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36