Book Title: Jinabhashita 2001 12
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 16
________________ जैन श्रमण परम्परा के अद्वितीय श्रमण आचार्य श्री विद्यासागर मुनि श्री अजितसागर संसार परिभ्रमण के चक्र में फंसे हुए दान देकर दिगम्बर मुनि बनाया उस 26 __ आचार्य श्री के 30वें आचार्यपदासंसारी प्राणी की दशा का वर्णन करने जायँ | वर्षीय दिगम्बर मुनि को अपना 'आचार्यपद' तो उसका वर्णन करना असंभव है, और रोहण दिवस पर विशेष आलेख। प्रदान करके निरापद होकर आत्मस्थ होकर उसके दुःख के बारे में कुछ लिखना चाहें आचार्यपदारोहण तिथि मार्गशीर्ष कृष्ण सल्लेखना की साधना में लग गये। ऐसे महान तो इतने शब्द नहीं कि पूरा-पूरा लिखा जा द्वितीया, वि.सं. 2029 आचार्य, ज्ञानमूर्ति श्री ज्ञानसागर जी महाराज सके। अनादिकाल से संसार सागर में पड़ा थे, जो ज्ञान की अनुपम धरोहर, शान्तिमूर्ति हुआ संसारी प्राणी इन्द्रिय सुख और दुःख की लहरों के थपेड़ों को | एवं मान-सम्मान की भावना से कोसों दूर थे। ऐसे आचार्य श्री ज्ञान सह रहा है। संसार का मोह ही इसके संसार को बढ़ाने का कारण है। सागर जी महाराज ने अपने शिष्य मुनिश्री विद्यासागर जी महाराज इस संसारसागर से यदि कोई पार होना चाहता है, तो उसके लिये को मार्गशीर्ष कृष्णा द्वितीया वि.सं. 2029, 22 नवम्बर 1972 हमारे आचार्यों ने कहा है कि जो रत्नत्रयरुपी नाव में बैठकर, समता | को नसीराबाद जिला अजमेर (राज.) में अपना चार्य पद का त्याग और संयम की पतवार को हाथ में लेकर नाव को खेता है, वह निश्चित | करके, अपने ही हाथों मुनि विद्यासागर जी को आचार्यत्व के सिंहासन रूप से एकदिन संसारसागर से पार हो जाता है। आज वर्तमान में | पर बिठाकर आचार्य पद से सुशोभित किया और स्वयं नीचे बैठकर इस भौतिकवादी युग में, जहाँ पर इन्द्रियों के विषयों का माया जाल | 'नमोऽस्तु' किया और निवेदन किया- हे आचार्यवर! आज से आप चारों तरफ फैला है, एक अप्रतिम महायोगी, जैन श्रमण परम्परा के | हमारे आचार्य हैं। हमारा यह शरीर जीर्ण हो गया है। मुझे सल्लेखना अद्वितीय श्रमण, ज्ञानध्यान की अनुपम कृति, जिनके अन्दर विद्या का व्रत प्रदान करके अपने निर्यापकत्व में हमारा समाधिमरण करायें। श्री सागर लहरा रहा है, ऐसे महान दिगम्बरजैनाचार्य श्री विद्यासागर जी ज्ञानसागर जी की भावना आचार्य श्री विद्यासागर जी ने कुशल निर्यापक महाराज ने भी संकल्प लिया और रत्नत्रयरूपी नाव में स्वयं को सवार बनकर पूर्ण की थी। कर, समता और संयम की पतवार को हाथ में लेकर इस संसार सागर अब सोचनीय बात यह है कि एक 26 वर्षीय मुनि विद्यासागर से पार करने का सतत पुरुषार्थ कर रहे हैं। आचार्य भक्ति में कहा | जी में वह क्षमता श्री ज्ञानसागर जी ने अपनी दिव्य दृष्टि से देखी थी, इसलिये उन्होंने अपने 'आचार्य पद' का भार उन्हें सौंपा था। गुरुभक्ति संजमेण य, तरंति संसारसायरं घोरं। । योग्यता के आधार पर ही व्यक्ति को उच्च पदों पर आसीन किया छिण्णंति अटुकम्मं जम्मणमरणं ण पावेंति।। । जाता है, इसीलिये किसी शायर ने लिखा हैऐसे गुरु की भक्ति करने से शिष्य घोर संसारसागर से तर उस आदमी को सौंप दो, दुनिया का कारोबार। जाता है, आठ खर्मों का क्षय भी कर सकता है, और जन्म मरण जिस आदमी के दिल में, कोई आरजू न हो।। से छुटकारा भी पा जाता है। आचार्य परमेष्ठी का लक्षण कहा है- जो ऐसे व्यक्तित्व के धनी को अपने आचार्यत्व का भार सौंपा, स्वयं मोक्षमार्ग पर चलते हैं, और जो भव्य जीव मोक्षमार्ग पर चलना जो जन रंजन से दूर आत्मरंजन के लिये निर्जन स्थानों को अपना चाहते हैं, उन्हें चलाते हैं, ऐसे आचार्य परमेष्ठी होते हैं। आज हम पड़ाव बनाता है और अध्यात्म रस से भरपूर गाथासूत्रों को अपने देखते हैं कि बालयति संघ के निर्माता परम पूज्य आचार्य श्री विद्यसागर मानस के चिन्तन की स्वर लहरी बनाता है। यह बात अलग है कि जी महाराज ऐसे ही आचार्यत्व को अपने जीवन में धारण करके वर्तमान | आचार्य गुरुवर यदि जंगल में भी पहुंच जाएँ तो वहाँ का वातावरण में भौतिकता की ओर दौड़ने वाली युवा पीढ़ी को धर्म की ओर आकृष्ट मंगलमय हो जाता है। ये गुरुवर ख्याति, पूजा, लाभ से कोशों दूर कर रहे हैं। इस आधुनिक युग के परिवेश में धर्म की बात को इन । रहते हैं, और परनिन्दा और आत्मप्रशंसा की बात उनके मुख से कभी युवाओं के मन तक पहुँचाया और संयम एवं वैराग्य का पाठ इनको नहीं निकलती। इनकी चर्या में संयम और वैराग्य की बात हरपल पढ़ाया और उनके मन में संयम व वैराग्य का बीज बोया, इसी का दिखती है। ऐसे आचार्य गुरुवर का यह 30वाँ आचार्य पद दिवस परिणाम है कि वर्तमान में युवा दिगम्बर जैन मुनियों को आप देख | है, जो भव्य जीवों के लिये कल्याण का मार्ग दिखानेवाला है। आचार्यश्री का जीवन आचरण की कसौटी पर कसा हुआ जीवन अब आपका ध्यान उन क्षणों की ओर ले जाना चाहता हूँ, जिन है, जो स्वयं चलते हुए इस मार्ग पर चलने वालों के लिये सही दिशा क्षणों में एक वयोवृद्ध 81-82 वर्षीय आचार्य अपनी गुरुता को | बोध प्रदान करता है। उन्होंने अहिंसा, और करुणा को प्रत्येक मानस छोड़कर अपने ही शिष्य जिसे क, ख, ग, से पढ़ाया और संयम का | का विषय बनाया है। ऐसे आचार्यश्री के व्यक्तित्व को हम देखते हैं, 14 दिसम्बर 2001 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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