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प्रवचन
___ अपने आदर्शों के पीछे चलो
दुनिया के पीछे नहीं
आचार्य श्री विद्यासागर
संसार में कोई यदि आदर्श मार्ग पर 28 नवम्बर 2001 को प्रातः दि. जैन सुन लेता हूँ और सबके लिये यही कहता हूँचलना चाहता है तो उससे कहा जाता है कि अतिशय क्षेत्र कोनी जी में आचार्य श्री
देखो हम किसी को 'हाँ' नहीं कहते, तो किसी तुम अपने आदर्शों के पीछे, अपने गुरुओं के | का ससंघ पदार्पण हुआ। वहाँ तीसवें
को 'न' भी नहीं कहते हैं। यदि हम किसी को पीछे चलना, दुनिया के पीछे नहीं चलना और
हाँ कह दें तो दूसरा नाराज हो जायेगा और इस दुनिया के पीछे भी नहीं पड़ना। यही सूत्र आचार्य पदारोहण दिवस पर2 दिसम्बर
उसके लिये 'न' कह दें तो वह नाराज हो मुझे आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज ने 2001 को दिया गया प्रवचन
जायेगा। इसलिये 'देखो' हमारा सूत्र-वाक्य दिया था। उन्होंने हमसे कहा था - तुम्हें कछ
है। यह तो हमारे पास सदा मिलेगा। हमें तो कहना नहीं है, कर्तव्य समझकर करते जाना स्वीकारना नहीं चाहती। वह संसार के बंधन | गुरु महाराज ने कहा था- सुनना सबकी पर
और करते ही चले जाना। सब कुछ होता चला में रचनापचना नहीं चाहती। उसी की विशेषता करना मन की। बस में वही कर रहा हूँ, सबकी जायेगा। बस पीछे मुड़कर नहीं देखना और है कि इतने सारे साधक आज मंचासीन हैं। | सुनता हूँ और किसी को नाराज नहीं करता न ही कहीं पर रुकना। यदि कहीं पर रुकते एक व्यक्ति रास्ते से जा रहा था। उसके हूँ। जैसे आप लोग अपनी दुकान चलाते हैं, हैं तो बहुत सी रुकावटें आ जाती हैं। यह कोनी पास जेब में कोयला है। एक गुफा के रास्ते अगर छोटा लड़का भी आ जाता है तो उसे क्षेत्र का इस बार का प्रथम रविवार है और से जा रहा है, उसने दूसरे को रास्ता बताने भी दद्दा दद्दा कहकर अपनी दुकान चलाते हैं। शीतकाल के प्रवास की आप लोगों ने अभी के लिय क्रास लगा दिया और आगे बढ़ गया। उसे नाराज नहीं करते हैं, बस मैंने भी अपनी बात की तो इस बारे में हम कछ कह नहीं | बहत से पीछे आने वालों का मार्ग प्रशस्त | दुकान को चलाने का तरीका आप लोगों से सकते हैं, क्योंकि बंधन से मुक्त होकर तो हो गया। इसलिए कोयला काम तो करता है। सीखा है। किसी को नाराज नहीं करना और आये हैं। इस बार तो और पाँच माह का हमने भी यहाँ आये ऐसे कोयलों को छाँटा, अपना काम करना। इसी का परिणाम है इतनी चातुर्मास था। इसलिए पाँच माह के बंधन के | जिनमें सागर, जबलपुर, ललितपुर आदि बड़ी दुकान है। गुरु महाराज ने कहा था- संघ बाद पुनः बन्धन की बात स्वीकारना ठीक आदि स्थानों से अच्छे-अच्छे कोयलों को | को गुरुकुल बनाना। बस यह सब उनका ही नहीं। आगे के बारे में तो कुछ कह नहीं सकते छाँटा और आज हीरे जैसे बने बैठे हैं। यह आशीर्वाद है। हम तो बस आचार्य श्री हैं। आज तो मैं बैठा बैठा सुन रहा था। अच्छा सब आप देख ही रहे हैं। यह बात सत्य है ज्ञानसागर जी महाराज की एजेंसी चला रहे लग रहा था। अभी ऐलक जी ने कहा था - कि गुरु के गुणों की महिमा गाने से गुरु के हैं। मैं तो बस एक एजेंट की तरह काम कर असंयमी कैसा होता है? तो कोयले के समान प्रति बहुमान बढ़ता है। हमारे लिये गुरुमहाराज रहा हूँ और करता ही जाऊँगा। यह मंच बड़ा कहा गया था। इसलिये कोयले से बचना ने जो कहा था वही मैं कर रहा हूँ। पद की होता जा रहा है। यह सब उन्हीं की कृपा का चाहिए, उस जलते हुए कोयले को छूते हैं तो, कोई बात नहीं है। हमें कार्य की ओर दृष्टि फल है। हाथ जल जाते हैं। वैसा छूते हैं, तो हाथ काले रखना चाहिए। अपने कार्य को कर्त्तव्य दृष्टि गंगा नदी जैसे गंगोत्री से बहुत पतली हो जाते हैं। हम यह कहना चाहते हैं कि यदि से करना चाहिए। मैंने तो अपने कार्य को किया | सी धार के रूप में निकलती है, वह अपनी हम असंयमी से बचते, यानी (जनता की ओर है और करता जा रहा हूँ। मैं तो बहुत छोटा यात्रा प्रारंभ करती है। रास्ते में एक छोटी नदी इशारा) आप लोगों से बचते तो आप कहाँ था। गुरुमहाराज ने इतनी वृद्धा वस्था में मुझे मिली। उसने पूछा कहाँ जा रही हो? वह से आते? ये मंच पर बैठे इतने सारे महाराज जैसे अनगढ़ के लिये जो दिया, इस योग्य बताती है और साथ हो जाती हैं, ऐसी ही कहाँ से आते? इसलिये हमारा कहना बना दिया। इसमें मेरा कुछ भी नहीं है, सब दूसरी-तीसरी आदि नदियाँ और बहुत सारी असंयमी से एकदम बचना नहीं, लेकिन गुरु महाराज का आशीर्वाद था। उनकी आज्ञा
नदियाँ मिलकर एक विशाल रूप में वह गंगा असंयमियों में रचनापचना नहीं है। जैसे का पालन करता जा रहा हूँ।
नदी बन जाती है। वैसे ही हम भी कुछ नहीं कोयला जब जलता है तभी भोजन पकता है, आज आप लोग बाँधना चाहते हो और है भैया, इन सब लोगों ने मिलकर हमें बड़ा यदि वह जले न तो आपका भोजन कैसे वचन चाहते हो, लेकिन हमारे लिये गुरु | महाराज बना दिया है. इन लोगों ने हमारे साथ बनेगा? वैसे ही गृहस्थ जो होता है, वह महाराज ने कहा था - किसी को वचन नहीं चलना चाहा, हमने कहा - चलो, अच्छी बात गृहस्थी के बंधन में बँधा होता है, अपनी देना। यदि कोई आपके वचनों को सुनने की है, हमें तो कोई बाधा नहीं है। जैसे गंगा नदी संतान को संस्कारवान बनाता है, वह स्वयं इच्छा रखता है, तो प्रवचन दे देना। आप बड़ी हो गई, वैसे ही यह संघ बड़ा होता चला बंधन में रहकर संस्कार देता है। उसके संस्कार लोग कोने-कोने से आ जाते हैं और हमारी गया। आप लोगों ने बताया 29 वर्ष पूरे हो ऐसे होते हैं कि उसकी संतान फिर बंधन को बात को सुनकर चले जाते हैं। मैं भी सब की गये, यह 30वाँ वर्ष प्रारंभ हो गया। मुझे तो 12 दिसम्बर 2001 जिनभाषित
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