Book Title: Jinabhashita 2001 12
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 19
________________ आत्मघात (विष खाकर, तालाब कुँए आदि में डूबकर, स्वयं बोधकथा फाँसी लगाकर या शस्रास्त्र से अपनी जीवनलीला समाप्त करना), सती प्रथा (मृत पति के साथ चिता में जल जाना), आमरण अनशन धर्मराज का वात्सल्य-भाव (अपनी किसी माँग की पूर्ति के लिये मरण पर्यन्त आहार त्याग करना), कौरव और पाण्डव दोनों एक ही कुटुम्ब में हुए थे। आदि समाधिमरण की कोटि में नहीं आ सकते। समाधिमरण और इनमें राज्यलोभ के कारण उनमें परस्पर में विरोध हो गया था। कौरवों आकाश-पाताल, काँच-हीरा, प्रकाश-अंधकार, दिन-रात, और 3,6 | ने पाण्डवों को इतना अधिक सताया कि उन्हें वन में भी शान्ति के अंक की तरह महान अन्तर है। ये कषायों की तीव्रता से, स्वार्थ से नहीं रहने दिया। कौरव सौ भाई थे पाण्डव थे पाँच भाई। की भावना से और कलुषित हृदय से किए जाते हैं जब कि समाधिमरण | दुर्योधन कौरवों में सबसे बड़ा था। एक बार उसे गन्धों शान्त परिणामों से विवेकपूर्वक बिना किसी वाञ्छा के किया जाता | ने बन्दी बना लिया। धृतराष्ट्र ने निवेदन किया धर्मराज युधियुष्टिर से उसे मुक्त कराने के लिए और धर्मराज ने कह दिया अपने दुक्खखओ कम्मखओ समाहिमरणं च बोहिलाओ य। छोटे भाई भीम से। मम होउ जगद्बान्धव तव जिणवर चरणसरणेण।। युधिष्ठिर से दुर्योधन को मुक्त कराने की बात सुनकर भीमराज क्रोध से भर उठे। बोले भइया! उस पापी को मुक्त जैन निबन्ध रत्नावली कराने की बात करते हो, जिसके कारण हमें वनवास की यातनाएँ (प्रथम भाग) से साभार सहना पड़ी। उस अन्यायी को मुक्त कराने की बात करते हो, जिसने भरी सभा में द्रौपदी को निर्वसन करने का दुस्साहस किया 1. गुणभद्ररचित उत्तरपुराण में भगवान् पार्श्वनाथ द्वारा ‘णमोकार था? धर्मराज भइया! अगर आप किसी और को मुक्त करने की मन्त्र' सुनाये जाने का उल्लेख नहीं है। उसमें मात्र यह कहा गया है बात करते तो अनुचित नहीं होता किन्तु दुर्योधन को मुक्त कराने कि नाग और नागी उनके उपदेश से शमभाव को प्राप्त हुए और मरकर मैं नहीं जाऊँगा। धरणेन्द्र - पद्मावती हुए। यहाँ सुभौमकुमार पार्श्वनाथ का ही दूसरा धर्मराज युधिष्ठिर का हृदय करुणा से भर गया। करुणाभाव नाम है। (देखिए सर्ग 73, श्लोक 95-118 तथा पृष्ठ 703 पर आँखों से बहने लगा। अर्जुन मौन रूप से यह सब सुन भी रहे व्यक्ति वाचक शब्दकोष) थे और देख भी रहे थे। उन्होंने भइया युधिष्ठिर की आँखों को सम्पादक देखा और उनके हृदय के वात्सल्यभाव को समझा। वात्सल्य के आगे वे भूल गये दुर्योधन का वैर। उठा लिया अपना गाण्डीव और शीघ्र जा भिड़े गन्धर्वो से। घनघोर युद्ध कर गन्धर्वो को सिद्धक्षेत्र सम्मेदशिखर जी में भव्य पराजित किया और दुर्योधन को गन्धर्वो से मुक्त करा लाये। धर्मराज ने समझाया - हम परस्पर में सौ कौरव और पाँच आर्यिकादीक्षा संपन्न पाण्डव हैं। परस्पर में लड़ भिड़ सकते हैं, किन्तु बाहरवालों के लिए हम सदा एक सौ पाँच भाई ही हैं। धर्मराज के वात्सल्य परम पूज्य आ. कल्प विवेक सागर जी महाराज द्वारा को देखकर और सुनकर भीमराज लज्जित होकर नतमस्तक हो दीक्षित परम पूज्य आचार्य विद्यासागर जी माहराज की संघस्था गये। आर्यिका 105 विज्ञानमति माता जी ने 18 नवम्बर 2001 साधर्मियों पर स्नेह रखना वात्सल्यभाव है। हमारे भीतर को पांच बालब्रह्मचारिणी बहनों को आर्यिकादीक्षा प्रदान की। युधिष्ठिर जैसी एकता और वात्सल्य की भावना होनी चाहिए। लैकिक और धार्मिक ज्ञान से सुशिक्षित बहनों के विचारों ने सजातीय की उन्नति हमारी ईर्षा का कारण न बने। मतभेद रहे वातावरण को वैराग्यमय बना दिया। आर्यिकाओं के नवीन तो भले रहे, पर मनभेद कभी न रहे। नामकरण को सुन अपार जनसमुदाय हर्ष से विभोर हो उठा। 'विद्याकथाकुंज' से साभार नवीन नाम इस प्रकार हैं - आर्यिका वृषभमति जी (ब्र. माधुरी, शाहपुर), आर्यिका आदित्यमति जी (ब्र. अर्चना रहली), आर्यिका पवित्रमति जी (ब्र. संध्या नागपुर), आर्यिका दयोदय पशु सेवा केन्द्र गोशाला गरिमामति जी (ब्र. सीमा कर्रापुर) आर्यिका संभवमति जी (ब्र. सेसई का उद्घाटन ज्योति रहली) बनी। भगवान महावीर स्वामी के 2600वें जन्म जयंती वर्ष इसी अवसर पर नव दीक्षित आर्यिका आदित्यमति जी में अहिंसा के पथ प्रदर्शक और देश के महान संत आचार्य श्री के गृहस्थ जीवन के माता-पिता को आर्यिका विज्ञानमति जी विद्यासागर जी महाराज के आशीर्वाद से मुनि श्री क्षमासागर जी, की पुरानी पिच्छिका प्राप्त हुई। कार्यक्रम का संचालन नरेन्द्र जी मुनि श्री भव्य सागर जी के सानिध्य में श्री विठ्ठलभाई पूर्व मंत्री एवं दीपक जी आष्टा ने किया। म.प्र. शासन के मुख्य आतिथ्य में दयोदय पशु सेवा केन्द्र शैलेन्द्र सिंघई कटंगी, जबलपुर गोशाला सेसई का उद्घाटन समारोह भव्यता से सम्पन्न हुआ। -दिसम्बर 2001 जिनभाषित 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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