Book Title: Jinabhashita 2001 04
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 9
________________ परिवर्तन पर निर्भर नहीं है, तद्नुकूल अन्तर्जगत में भी परिवर्तन आवश्यक | क्योकि समस्त शासन-प्रणालियों में यही कम दोषपूर्ण है। इन सब को है। यदि बाह्य जगत के अनुरूप अन्तर्जगत में परिवर्तन नहीं हुआ तो बाह्य कायम रखते हुए ही आसन्न अनिष्टों से मुक्ति पानी है। वस्तुतः बुराई बाह्य जगत की सुख-सुविधाएँ भी दुःख का कारण बन जाती हैं। मनुष्य जगत में नहीं, अन्तर्जगत में होती है। यदि मनुष्य बुरा है तो बाह्य जगत विषयवासनाओं अर्थात् काम, क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार आदि कितना ही अच्छा हो, बुरा बन जाता है। यदि मनुष्य अच्छा है तो बुरे से बुरे विकारों का पुतला है। बाह्य जगत का उपयोग वह इन विषयवासनाओं के बाह्य जगत को अच्छा बना देता है। इसलिए मनुष्य की आत्मा का ही अनुसार ही करता है। इससे उसकी हानि होती है या लाभ, वासनाओं के संस्कार आवश्यक है। यह एक वैज्ञानिक सत्य है, जो आज नहीं तो कल आवेग में इसका विवेक नहीं कर पाता । यदि उसे बाह्य जगत में इन्द्रियों को | दुनिया को महसूस करना होगा कि जितनी ही भौतिक सम्पन्नता बढ़ेगी, प्रिय लगने वाली प्रचुर सामग्री एवं उसके भोग की स्वच्छन्दता प्राप्त हो जितनी ही वैज्ञानिक सुख-सुविधाएँ उपलब्ध होंगी, मनुष्य को जितनी जाती है,तो इतना अनियंत्रित भोग करता है कि अपने जीवन का भी विनाश स्वायत्तता मिलेगी, उतना ही उसकी आत्मा का संस्कार आवश्यक होगा, कर लेता है। यदि उसे अपने आसपास प्रचुर सम्पत्ति दिखाई देती है तो उसे अन्यथा विषय-कषायों या काम, क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार आदि वह पूरी की पूरी बटोर लेना चाहता है। इससे दूसरे अभावग्रस्त होकर मर विकारों से ग्रस्त मूर्ख मानव इस सम्पन्नता का उपयोग अपने और दूसरों के जायेंगे या हिंसक होकर उसका ही विनाश कर डालेंगे इसकी परवाह नहीं विनाश में ही करेगा जिसके लक्षण दिखाई दे रहे हैं। जब हमारे पास ऐसे करता। यदि उसे कोई घातक शस्त्र मिल जाता है तो मामूली सी बात पर साधन हों जिनसे हम अपना हित भी कर सकते हैं और अहित भी, तब हमें क्रोध में आकर उसका ही अपने विरोधी पर प्रहार कर देता है अथवा तीव्र आत्मा के संस्कार की अर्थात् मूलप्रवृत्तियों और मनोविकारों की अधीनता क्रोधावेश में उससे अपना ही घात कर लेता है। इसलिए इन संकटों से से मुक्त होने की अत्यंत आवश्यकता हो जाती है। छुटकारा पाने के दो ही उपाय हैं, या तो मनुष्य को बाह्य जगत में ऐसी | महावीरप्रणीत जीवनपद्धति का सार : आत्मसंस्कार सुविधाएँ उपलब्ध न हों जिससे वह अपने या दूसरों के घात में समर्थ हो सके अथवा उसकी आत्मा का संस्कार हो जाये ताकि बाह्य जगत में उपलब्ध इस सन्दर्भ में भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित जीवनपद्धति अत्यन्त सुविधाओं का वह दुरुपयोग न करे । प्रासंगिक सिद्ध होती है। यह आत्मसंस्कार पर जोर देती है। इसका अन्तस्तत्त्व आत्मा का उदात्तीकरण है। आत्मा से क्रमश: परमात्मा बनने का लक्ष्य वर्तमान की विडम्बना यह है कि बाह्य जगत तो काफी सुख-सुविधाओं इसमें अन्तर्निहित है। मनुष्य के स्तर से उठकर भगवान के स्तर पर पहुँचने के से सम्पन्न हो गया है, किन्तु मनुष्य के अन्तर्जगत का संस्कार नहीं हुआ है। पुरुषार्थ की यह प्रणेता है । जैसे खान से निकला हुआ अशुद्ध स्वर्ण इसलिए भौतिक सुख-सुविधाओं और वैज्ञानिक साधनों का उपयोग वह विवेकपूर्वक न कर अविवेकपूर्वक कर रहा है, जिससे चारों तरफ अशान्ति किट्टकालिमा से मुक्त होकर शुद्ध स्वर्ण बन जाता है वैसे ही काम, क्रोध, और हिंसा फैल रही है। यदि बाह्य जगत में यह परिवर्तन न हुआ होता तो लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष आदि विकारों से छुटकारा पाकर निर्विकार चिन्ता की इतनी बात नहीं थी, मानवजाति के समाप्त होने का भय नहीं बन जाना ही महावीर के अनुसार मानवजीवन का साध्य है। निर्विकार होता, न मशीनों के आने से जो आर्थिक विषमता उत्पन्न हुई है वह होती, न स्वरूप ही आत्मा का परमस्वरूप है। यह अवस्था समस्त चिन्ताओं से प्रचुर भोग सामग्री के कारण मनुष्य जो अतिविलासी, शोषक और सार्वजनिक रहित होने के कारण परम आनन्दमय है। अतः यही जीवन का सर्वोच्च हित से विमुख बना है, वह बना होता , न अनेक आदमियों के हाथ में सत्ता प्राप्तव्य है। आने से जो भ्रष्टाचार बढ़ा है, वह बढ़ा होता । किन्तु बाह्यजगत के इस भगवान महावीर का दर्शन यह दृष्टि प्रदान करता है कि सांसारिक परिवर्तन ने मानवजाति के समाप्त हो जाने की या इस धरती के क्रमशः नरक वैभव, राजसत्ता और भोगसामग्री वे चीजें नहीं है जिनसे दुःख के स्रोतों का बनते जाने की चिन्ता उत्पन्न कर दी है। विनाश होता है। दुःख के स्रोत हैं - जन्म, मरण, रोग, बुढ़ापा, इष्टवियोग, संकटों से मुक्ति का उपाय : आत्मसंस्कार अनिष्टसंयोग, प्रतिस्पर्धा और अतृप्ति (लोभ)। जगत का कोई भी वैभव, कोई भी राजसत्ता, कोई भी भोग्य पदार्थ, दुःख के इन स्रोतों को नष्ट नहीं कर इस चिन्ता से मुक्त होने का एक ही उपाय है : मनुष्य के अन्तर्जगत् में सकता। हाँ, इनसे जो दुःख उत्पन्न होते हैं उनमें से कुछ की अनुभूति को परिवर्तन अर्थात् उसकी आत्मा का संस्कार । क्योकि बाह्य जगत को तो सांसारिक पदार्थ कुछ देर के लिए रोक सकते हैं, किन्तु उनकी उत्पत्ति पर पीछे नहीं ढकेला जा सकता है। वैज्ञानिक ज्ञान और आविष्कारों का भी प्रतिबन्ध नहीं लगा सकते। जब तक दुःख के उपर्युक्त कारण विद्यमान रहते परित्याग नहीं किया जा सकता। उनके विकास पर भी रोक नहीं लगायी जा हैं तब तक दुःख की उत्पत्ति होती रहती है। बस, सांसारिक पदार्थों के द्वारा सकती। प्रजातांत्रिक शासनपद्धति को भी तिलांजलि देना संभव नहीं है, उसकी अनुभूति को बार-बार रोकने की चेष्टा मात्र की जा सकती है। किन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only - अप्रैल 2001 जिनभाषित 7 www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36