Book Title: Jinabhashita 2001 04
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 31
________________ कुंडलपुर की भूवैज्ञानिक परिस्थितियों का विवेचन • विनोद कुमार कासलीवाल भूगर्भ अभियांत्रिकी विशेषज्ञ, भूतपूर्व निदेशक, भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण कुंडलपुर ( दमोह, म. प्र. ) में विराजमान बड़े बाबा के नाम से प्रसिद्ध प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की प्राचीन प्रतिमा पिछले पन्द्रह सौ वर्षों से पूजी जा रही है। इस प्रतिमा और इसके मंदिर से संबंधित कुछ बातें जैन समाज में काफी अरसे से चर्चा का विषय हैं, जैसे पूजन के लिए पर्याप्त स्थान का ना होना, मूर्ति का वास्तुशास्त्रानुसार स्थापित ना होना, भूकंप से क्षति की संभावना होना आदि इन समस्याओं के समाधान हेतु यह प्रस्ताव आया कि एक विशाल नया मंदिर बनवाकर प्रतिमा को उसमें पुनः प्रतिष्ठित किया जाए। इस प्रक्रिया में प्रतिमा को कोई क्षति न हो इस हेतु भू-वैज्ञानिक जाँच के लिए २० फरवरी २००१ को मंदिर का मुआयना किया गया जिसमें निम्न बातों की जाँच की गई यह मूर्ति बलुआ पत्थर में से खड़ी चट्टान से गढ़ी गयी है। यह एक महत्वपूर्ण बात है। यद्यपि भू-वैज्ञानिक परिपेक्ष्य में इन चट्टानों की परतें पट्ट होती है पर इसमें खड़ी है। इसलिए जब भी इसमें से मूर्ति काटी जायेगी इसकी प्रत्येक परत गोलाकार रूप में दिखाई पड़ेगी। बलुवा पत्थर अपने स्वभाव और बनावट के कारण भुरभुरे होते हैं और उनमें पानी सोखने की क्षमता होती है। यदि ऐसे किसी बलुआ पत्थर को लगातार पानी में भिगोया जाये और उसको रगड़ा जाये तो ये परतें खुल सकती हैं। वास्तव में पिछले १५०० सौ साल में इस मूर्ति का प्रक्षाल कुछ ही यात्रियों द्वारा किया जाता था परंतु अब अधिक से अधिक बार इसका प्रक्षाल होगा। इसलिए मूर्ति में जो १५०० सालों में बदलाव नहीं आया वह बदलाव १५ साल में आ सकता है। इसलिए यह अति आवश्यक है कि मूर्ति का प्रक्षाल कम से कम किया जाये। यह कोई धर्म विरुद्ध बात नहीं हैं, क्योंकि ऐसा ही अतिशय क्षेत्र श्री महावीर जी में भी किया जा रहा है। २. मूर्ति में दरारें आना लेखक पूर्ण श्रद्धा और विनय से अपने भाव आचार्यश्री और मुनि श्री क्षमासागरजी महाराज यह मूर्ति बलुवा पत्थर की चट्टान से गढ़ी एवं प्रमाणसागर जी महाराज को अर्पित करते हुए गयी है। बलुवा पत्थर की चट्टानों में अदृश्य जोड़ / अपना महान सौभाग्य मानता है कि उनसे इस चीरें होती हैं जो बहुत मुश्किल से दिखती हैं। उनका विषय में चर्चा करने का सौभाग्य मिला । कोई विस्तार नहीं होता। इनके होने से चट्टानों में १. मूर्ति के पत्थर की जातिऔर उस पर कोई नुकसान नहीं होता । परंतु यदि लंबे अरसे तक लगातार नैसर्गिक क्षरण शक्तियां जैसे हवा और यह मूर्ति वहाँ पर मिलने वाले बलुआ | पानी काम करती रहती हैं तो ये चीरें और जोड़ असर १. यह मूर्ति किस पत्थर से बनी हुई है और इस पर १५०० साल में क्या असर आया है। २. मूर्ति में दरारें आना ३. क्षेत्र की भूकंपीय परिस्थितियां ४. नींव की हालत यह सभी जाँच आचार्यश्री १०८ विद्यासागर जी महाराज और उनके संघ की प्रेरणा से हुई और सभी में केवलज्ञानी १००८ तीर्थंकर आदिनाथ स्वामी का मार्गदर्शन रहा। पत्थर (Sand Stone) से गढ़ी गई है। यह चहान विंध्यकालीन महा चट्टानों की एक सदस्य है । ये बलुआ पत्थर चट्टानें रीवा बलुआ पत्थर और पट्टीदार शैल से बनी हुई हैं। इस प्रकार की चट्टानें कुण्डलगिरि एवं उसके आसपास पायी जाती हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only साफ दिखाई देने लगते हैं। जिस बलुआ चट्टान से यह मूर्ति गढ़ी गयी है उसमें तीन जोड़ / चीरें मौजूद हैं। इसमें से दो, मूर्ति के पद्मासन के दाहिने पांव पर हैं और तीसरी मुख पर। इनमें से कोई भी लंबी चीर या जोड़ महीं है। जो पद्मासन में है वह नीचे की वेदी में नहीं पायी जाती है और जो चेहरे पर है वह शरीर और वक्ष पर नहीं पायी जाती है। ये चीरें साफ-सुथरी हैं अर्थात् उनके अंदर किसी भी प्रकार के बाहरी पदार्थ का भराव नहीं है। ये तीनों चीरें एक-दूसरे के समानान्तर हैं। जो पद्मासन पर है, वह समान दूरी पर है और जो मुख पर है वह हटकर है। ये चीरें मानवजनित क्षरण शक्तियों, जैसे कि प्रक्षाल, की वजह से अब स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ने लगी हैं। पद्मासन और बेदी के बीच में जो एक बाल सदृश मोटाई का खुलापन दिख रहा है वह उसके नीचे भराव की पुनः संरचना में बदलाव आने के कारण है तथा इसी प्रकार जो मूर्ति के बायें कुण्डल के पीछे एक चीर दिखाई पड़ती है वह मूर्ति के दाहिने तरफ झुक जाने की वजह से है। यदि और कोई निशान चीरा जैसे लगते हैं तो वे मूर्तिकार की छैनी के निशान हैं। इससे यह कहा जा सकता है कि मूर्ति में कोई नुकसान नहीं हुआ है परंतु उसकी वेदी में बदलाव आने की वजह से यह मूर्ति असुरक्षित हो गयी है। अतएव यह परम आवश्यक है कि इस मूर्ति को किसी सुरक्षित स्थान पर पुनः स्थापित किया जाये। ३. क्षेत्र की भूकंपीय परिस्थितियाँ कुण्डलगिरि जबलपुर से सीधी उड़ान में उत्तर में १२० कि.मी. की दूरी पर है। जबलपुर अप्रैल 2001 जिनभाषित 29 www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 29 30 31 32 33 34 35 36