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का निर्वाह करते हुए और सुख-सुविधाओं, इन्द्रियविषयों का आवश्यकतानुसार उपभोग करते हुए भी उन्हें परम मूल्यवान नहीं मानता। फलस्वरूप उन्हें येन केन प्रकारेण प्राप्त करने की कोशिश नहीं करता, न्यायपूर्वक ही अर्जित करता है, दूसरों का हक छीनकर अपने निर्वाह की सामग्री नहीं जुटाता । अन्यायपूर्वक धनोपार्जन से बचना उसका लक्ष्य बन जाता है। अतः कम से कम वस्तुओं से काम चलाने के लिए इन्द्रियों को संयत करने का अभ्यास करता है, वस्तुओं की अधीनता से यथाशक्ति मुक्त होने की साधना करता है। इस प्रकार उसके जीवन में अहिंसा, अपरिग्रह, संयम और तप अवतरित होने लगते हैं जिन्हें जैनदर्शन ने आत्मा के सर्वोच्च स्वरूप अर्थात् निर्विकार अवस्था और निराकुलतारूप सुख को पाने के लिए परमावश्यक बतलाया है।
दृष्टि (आस्था) का सम्यक् बन जाना और प्रवृत्ति का अहिंसा, अपरिग्रह, संयम एवं तपोमय बन जाना ही आत्म संस्कार है। यही जैन साधना का मूलमंत्र है। इसके द्वारा आधुनिक परिस्थितियों से उत्पन्न खतरों
टाला जा सकता है। यही वर्तमान युग के संकटों से बचने का एकमात्र उपाय है। आज जब मानवता के समूल विध्वंस का साधन मनुष्य के हाथ लग गया है और कोई बाह्य शक्ति उस पर अंकुश लगाने में समर्थ नहीं है तब मनुष्य मात्र के प्रति संवेदनशीलता (मैत्री और कारुण्य) का संस्कार ही उसे मानव - विध्वंस के क्रूरकर्म से रोकने में सफल हो सकता है। मशीनीकरण के फलस्वरूप राष्ट्र की सम्पत्ति सारे उपायों के बावजूद, जो कुछ ही लोगों के हाथ में केन्द्रित होती जा रही है उससे उत्पन्न आर्थिक विषमता केवल अपरिग्रह के आत्मसंस्कार द्वारा ही दूर हो सकती है। दूसरा उपाय साम्यवादी तानाशाही है, किन्तु उसमें तो मनुष्य, मनुष्य ही नहीं रहता, पशु बना दिया जाता है और जैसा कि सुक्रात ने कहा है, 'एक सन्तुष्ट सुअर होने की बजाय एक असन्तुष्ट मनुष्य होना बेहतर है।' इसी प्रकार जब चारों तरफ नित नई भोग सामग्री उपलब्ध हो रही है तथा भोगवृत्ति पर कोई बाह्य नियंत्रण नहीं है, तब मात्र आत्मसंयम ही मनुष्य को विलासी, अकर्मण्य, शोषक तथा दूसरों के हितों से विमुख होने से बचा सकता है। तथा सर्वोत्तम प्रजातांत्रिक शासन प्रणाली में भी मानवस्वभाव की विकृति के कारण जब ऊपर से लेकर नीचे तक, नेता से लेकर जनता तक के लिए भ्रष्टाचार के द्वार खुल गये हैं तब इन द्वारों में प्रवेश करने से मनुष्य को रोकने वाली एकमात्र शक्ति आत्मसंस्कार ही है। महावीर द्वारा उपदिष्ट जैन जीवनपद्धति आत्मसंस्कार प्रधान है अतः वर्तमान सन्दर्भ में वह अत्यंत प्रासंगिक है।
137, आराधनानगर, भोपाल-462003 (म.प्र.)
जो बिनु ग्यान क्रिया अवगाहै, जो बिनु क्रिया मोखपद चाहे।
नमो है मैं सुखिया, सो अजान मूढ़नि मैं मुखिया ||
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कविता
गुरु-स्तवन
• डॉ. कपूरचन्द्र जैन
देह तो मैली-कुचैली आत्म उज्ज्वल रूप है। वासनायें मर चुकी हैं, चेतना चिद्रूप है।
अज्ञान का तम हट चुका है ज्ञान तो सद्रूप है आज मेरे पूज्य गुरुवर का यही बस रूप है।
आत्मसंयम के धनी ये दोष से तो रंक हैं पाप में हैं शून्यये पर पुण्य में शत अंक हैं। ज्ञान, वाणी, चेतना से भरा आतम- कूप है आज मेरे पूज्य गुरुवर का यही बस रूप है।
गुमित्र को गुप्त रखके ज्ञान का आलोक करते समिति पाँचों पालते हैं स्वयं में संयम को धरते ॥
धर्म दश आराधना कर धर्म इनका रूप है आज मेरे पूज्य गुरुवर का यही बस रूप है।
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चिन्तन करें अनुप्रेक्षायें ज्ञान से सब ज्ञेय हैं जीतते हैं परीषह सब और स्वयं अजेय हैं। पंचविध चरित्र से चारित्र इनका रूप है आज मेरे पूज्य गुरुवर का यही बस रूप है।
अध्यक्ष संस्कृत विभाग,
श्री कुन्दकुन्द जैन कालेज, खतौली - 25101 ( उ. प्र. )
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