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सहयोग करने के लिये आते हैं। इस आयोजन में जैनेतर भाइयों का भी बड़ा सहयोग रहा है। मैं
में रहना सिखाते हैं। जब भी गुरु कुछ दें, तुम ले गुरु- समागम
लेना। चंदन जैसी महक एवं खस जैसी सुगन्धी जिस दिन कुण्डलपुर आया था उस दिन १०-१५
- मुनि श्री चन्द्रसागर
जीवन में फूट उठेगी। चंदन की रीति को अपनाने| सज्जन आये, हम से बोले, 'हम भी इस कार्यक्रम
गुरु का समागम दिशा का बोध एवं दशा वाला बड़ा ही कुशल होता है। उसे जितना ही में अपना सहयोग देना चाहते हैं। हमारे लिये इस का परिवर्तन है। यदि साथ गुरु का हो तो कोई अधिक घिसा जाता है वह उतना ही अधिक कार्यक्रम के दौरान सफाई व्यवस्था का काम दे |भटकता नहीं,चलना सीख जाता है। उसके जीवन महकता है। घिसनेवाले को अपनी सुगंध से दिया जाये। उन्होने हाथ में झाडू लेकर वह काम | में आयी हुई सभी समस्याओं का समाधान मिल सुरभित कर देता है। इस रीति को अपनाने- जानने करना स्वीकार किया। बोले हमारे ५०० कार्यकर्ता | जाता है। जो चलता है वह रास्ता पार कर मंजिल वाले गुरु, समागम में आये शिष्य की पात्रताहैं, वे कौन हैं? तो वे गायत्री परिवार वाले हैं, पर पहुंच जाता है। जो रुक जाता है वह ठहर कर अपात्रता को जानकर साधना के क्षेत्र में उतार जिन्होंने अपना कार्य कुशलतापूर्वक किया। जैनों
रह जाता है। वह भटक जाता है मार्ग में ही अटक देते हैं। इनका समागम ही ऐसा होता है। इन जैसा के लिये उनके सेवा भाव से सीख लेना चाहिए। वे
जाता है। मानो उसका जीवन लुट जाता है। गुरु भले ना बने पर वह संयत एवं संतोषी अवश्य बन सभी धन्यवाद के पात्र हैं। साफ-सफाई दूसरे की
के समागम का पूर्ण लाभ लेना चाहिए। मौके का जाता है। गुरु का सान्निध्य ही गुणों के विकास नहीं, हमारी अपनी व्यवस्था है। यह बड़ा कठिन फायदा उठाना चाहिए। यदि हम अपना भला का मार्ग है। गुरु के पास रहने से भावना पवित्र
बनकर कार्यों की सिद्धि के योग्य बना देती है। कार्य था, जो इन्होंने किया।
चाहते हैं तो गुरु हमारा हाथ पकड़कर चलाने
लगते हैं, लेकिन किसी को दिखता नहीं कि गुरु यहाँ पर सारे गमों को भूलकर गुरु में समा जाना हमारा संघ संख्या में तो बड़ा है, लेकिन || हमारा हाथ पकड़े हैं। उनकी शक्ति अदृश्य होती ही समागम कहलाता है जो समता की ओर गमन उम्र में बहुत छोटा है, सभी जवान हैं। उनसे गलतियाँ | है। वे अपने सहारे चलना सिखाते हैं अपने आप करने का आदेशपत्र है। भी हो सकती हैं, हुई होंगी। उनको ध्यान में न दे। बहुत बार तो मुझे भी डाँटना पड़ा और पुलिस
प्रो.रतनचन्द्र जैन का अभिनन्दन वालों से भी कार्य कराना पड़ा। पुलिसवालों का भी विशेष सहयोग रहा। यह सब काम भावनाओं कुण्डलपुर महोत्सव के अवसर पर दि. 26 फरवरी 2001 को विशाल जनसभा में प्रो. से होता है। चतुर्थकाल, पंचमकाल और कुछ नहीं
रतनचंद्र जैन, भोपाल ने परमपूज्य आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज को अपने नवलिखित ग्रन्थ
“दिगम्बर जैन साहित्य और यापनीय साहित्य" की पाण्डुलिपि समर्पित की। यह तो हमारे भावों के ऊपर आधारित है। इतने बड़े आयोजन में कमियाँ तो अवश्य रही होंगी।
___ इस वर्ष अमरकण्टक चातुर्मास के समय आचार्यश्री के समक्ष पन्द्रह दिन तक इस ग्रन्थ की
वाचना की गई थी। आचार्यश्री ने प्रतिदिन चार घण्टे का समय देकर ग्रन्थ का ध्यान से श्रवण किया अभी जो अध्यक्ष महोदय सभी से क्षमा माँग रहे
था। इसी प्रकार कुण्डलपुर में भी सात दिन तक दो-दो घंटे बैठकर ग्रन्थ के शेष पृष्ठ मनोयोग से सुनें। थे, उनसे कहना है, 'अगले आयोजन की तैयारी अमरकण्टक में पूज्य मुनिश्री अभयसागर जी तथा कुण्डलपुर में पूज्य मुनिश्री प्रमाण सागर जी एवं अच्छे से आपको करना है।' आगामी कार्यक्रम में अभयसागर जी भी आचार्यश्री के साथ बैठते थे। उनके द्वारा सुझाये गये अनेक संशोधन ग्रन्थ में कमियां न हों, यह ध्यान रखें। ' यह कार्यक्रम
किये गये तथा अनेक नये तथ्य जोड़े गये जिससे ग्रन्थ परिमार्जित हो गया। जबलपुर से बड़ा कार्यक्रम था। जो सानंद संपन्न
आचार्यश्री ने प्रवचन के अंत में ग्रन्थ की प्रशंसा करते हुए कहा कि "ग्रन्थ अत्यंत परिश्रमपूर्वक
लिखा गया है । इसके लेखन में शोधपद्धति अपनायी गयी है । लेखक ने अपने मन्तव्यों और हुआ। अंत में आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज
निष्कर्षों को युक्ति और प्रमाणों से पुष्ट किया है जिससे ग्रन्थ प्रामाणिक बन गया है। 'जैनधर्म का को स्मरण करता हुआ विराम लेता हूँ। यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक ने दिगम्बर जैन साहित्य के विषय में जो यह भ्रान्ति फैलाई है कि यही प्रार्थना वीर से, अनुनय से कर जोरा
उसके षट्खण्डागम, कसायपाहुड आदि अनेक ग्रन्थ यापनीय सम्प्रदाय के आचार्यों द्वारा लिखे गये
हैं, उसका निराकरण इस ग्रन्थ से भलीभाँति हो जाता है।" आचार्यश्री ने लेखक को आशीर्वाद हरी भरी दिखती रहे, परती चारों ओर।।
प्रदान किया।
पश्चात् सर्वोदय जैन विद्यापीठ आगरा की ओर से इक्यावन हजार रुपये एवं शाल तथा
श्रीफल भेंटकर प्रो.रतनचंद्र जी का अभिनन्दन किया गया। रतनचंद्रजी ने अपनी ओर से ग्यारह आचार्य विद्यासागर जी का शत-शत
हजार रुपये मिलाकर सम्पूर्ण सम्मान राशि बड़े बाबा के नवमंदिर निर्माणार्थ दान कर दी। अभिनन्दन
24 अप्रैल 2001 जिनभाषित - Jain Education International
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