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कुन्दकुन्द की दृष्टि में शुभोपयोग परम्यरया मोक्ष का हेतु
डॉ. श्रेयांसकुमार जैन
बतलाया है -
आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसागर में शुभोपयोग का लक्षण इस प्रकार | शुद्धोपयोग परिणाति के द्वारा मोक्ष प्राप्त करने में सफल हो जाता है। इस प्रकार गृहस्थ का शुभोपयोग परमसुख अर्थात् मोक्ष सुख की प्राप्ति का परम्परया हेतु है ।
देवजदि गुरु पूजासु वेव दाणाम्मि वा सुसीलेसु । उववासादिसु रत्तो सुहोवओगप्पगो अप्पा || 691
जो आत्मा देव, यति और गुरु की पूजा, दान सुशील (गुणव्रत, महाव्रत आदि उत्तम प्रवृत्तियों) तथा उपवास आदि तपों में अनुरक्त होता है वह शुभापयोगी है।
जो जाणादि जिनिंदे पेच्छदि सिद्धे तहेव अणगारे । जीवेसु साणुकंपा उवओगो सो सुहो तस्स ।।1571
जो जीव अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु में श्रद्धा-भक्ति रखता है तथा जीवों पर दया करता है उसका उपयोग शुभ होता है।
अरहंतादिसु भत्ती वच्छलदा पवयणाभिजुत्तेसु । विजदिदि सामपणे सा सुहजुत्ता भवोचरिया ।। 246।।
जिस मुनि की अरहन्त और सिद्ध में भक्ति तथा शुद्धात्मस्वरूप के उपदेशक आचार्य, उपाध्याय और साधु में वात्सल्य होता है उसका चारित्र शुभोपयोग युक्त होता है।
दंसणणाणुवदेसो सिस्सग्गहणं च पोसणं तेसिं । चरिया हि सरागाणं जिणंदपूजोवदेसो य | 24811 सम्यग्दर्शन और सम्यज्ञान का उपदेश देना, शिष्यों का संग्रह तथा पोषण करना एवं जिनेन्द्र की पूजा का उपदेश देना शुभोपयोगी मुनियों की प्रवृत्ति है। शुभोपयोग का फल
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उपर्युक्त शुभोपयोग का फल बतलाते हुए आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं. एसा पसत्थमूदा समणाणं वा पुणो घरत्थाणं । चरिया परेत्ति मणिदा ता एव परं लहदिसोक्खं ॥ 25411
यह शुभोपयोगरूप चर्चा श्रमणों के तो गौण रूप से होती है, किन्तु गृहस्थों के मुख्य रूप से होती है। गृहस्थ इसी के द्वारा परम्परया परमसुख (मोक्षमुखः) प्राप्त करते हैं।
शुभोपयोग के द्वारा गृहस्थ को परम्परया मोक्ष की प्राप्ति किस प्रकार होती है इसका स्पष्टीकरण आचार्य अमृतचन्द्र ने इस प्रकार किया है
" गृहिणां तु... ... स्फटिक सम्पर्कणा तेजस इवैधसां रागसंयोगेन शुद्धात्मनोऽनुमवात् क्रमतः परमनिर्वाण सौख्यकारणत्वाच्च मुख्यः।" अर्थात् जैसे ईंधन स्फटिक के सम्पर्क से धीरे-धीरे सूर्य के तेज को ग्रहण कर जल उठता है वैसे ही गृहस्थ अरहन्तादि के प्रति जो शुभराग होता है। उसके संयोग से क्रमशः शुद्धोपयोग की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है। और फिर
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आचार्य कुन्दकुन्द ने भी प्रशस्तराग रूप शुभोपयोग को वस्तुविशेष के सम्पर्क से भिन्न-भिन्न फल देने वाला बतलाते हुए उसके परम्परया मोक्ष हेतु होने का औचित्य सिद्ध किया है। यथा
रागो पसत्थमूदो वस्थुविसेसेण फलदि विवरीदं । णाणाभूमिगदाणिह बीजाणिव सस्सकालम्हि ॥ छदुमत्थविहिदवत्थुसु वदाणियमज्झयण झाणदाणरदो। ण लहदि अपुणम्भावं भावं सादप्यगं लहदि ॥ प्रवचनसार, 255-256
जैसे एक ही प्रकार के बीज वर्षा ऋतु में अलग-अलग प्रकार की भूमियों में बोये जाने पर अलग-अलग प्रकार से फलित होते हैं अर्थात् अच्छी भूमि में बोये गये बीजों से अच्छी फसल होती है और खराब भूमि में बोये गये बीजों से खराब फसल, वैसे ही सर्वशोपदिष्ट तत्त्वों का अवलम्बन करने वाला शुभोपयोग पुण्यबन्धपूर्वक मोक्ष का कारण बनता है और मिथ्यादृष्टियों द्वारा उपदिष्ट तत्त्वों का अवलम्बन करने वाला शुभोपयोग मोक्ष का कारण नहीं होता, केवल उत्तम देव और मनुष्यगति का कारण होता है।
आचार्य जयसेन ने उक्त गाथाओं की व्याख्या इस प्रकार की है
'यथा जघन्यमध्यमोत्कृष्टभूमिविशेषेण तान्येव वीजानि भिन्नमित्रफलं प्रयच्छन्ति तथा स एव वीजस्थानीय शुभोपयोगो भूमिस्थानीय पात्रभूतवस्तुविशेषेण भिन्न-भिन्नफलं ददाति । तेन किं सिद्धम् ? यदा पूर्व सूत्रकथिततन्यायेन सम्यक्त्वपूर्वकः शुभोपयोगो भवति तदा मुख्यवृच्या पुण्यबन्धो भवति, परम्परया निर्वाणंच, नो पुण्यबन्धभात्रमेव ।”
अर्थ-जैसे वही बीज जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भूमियों की विशेषता से भिन्न फल देता है। अभिप्राय यह है कि जब सम्यक्त्वपूर्वक शुभोपयोग होता भिन्न-भिन्न फल देते हैं, वैसे ही वही शुभोपयोग पात्रों की विशेषता से भिन्नहै तब मुख्य रूप से तो पुण्यबन्ध होता है और परम्परया मोक्ष, अन्यथा पुण्यबन्ध होता है, मोक्ष नहीं होता।
इस तरह आचार्य कुन्दकुन्द ने सर्वज्ञोपदिष्ट व्रत, नियम, अध्ययन, ध्यान, दान आदि के अनुष्ठान पर आश्रित शुभोपयोग को परम्परया मोक्ष का कारण बतलाया है। अतः वह कंथचिद् उपादेय भी है, सर्वथा हेय नहीं है।
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अप्रैल 2001 जिनभाषित 15 www.jainelibrary.org.