Book Title: Jinabhashita 2001 04
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 7
________________ भगवान महावीर का तो जन्म अंतिम था। | निर्मलता चाहिये । श्रद्धा भक्ति ही अन्तर्मन को | को धारण करती रहती है। यही शरीर का बंधन उनकी मृत्यु भी अंतिम थी । वे स्वयं भी अंतिम | निर्मल बनाती है। भगवान महावीर की जयन्ती | दुखदायी है। इस बंधन से मुक्त होना ही सुखकर है तीर्थंकर थे। इसके पूर्व और भी तेईस तीर्थंकर हुए | मनाकर अपने अन्तर्मन को निर्मल बनाने का प्रयास यही आदर्श है। यही श्रेयस्कर है। यही प्राप्तव्य । सभी ने अपने आत्मबल के द्वारा अपना कल्याण करें। पाँच पापों से मुक्त होकर, कषाय भावों को किया और हमारे लिए कल्याण का मार्ग बताया। छोड़कर आत्मस्थ होने का प्रयास करें। इसी भावना के साथ अंत में इतना ही कहूँगा लेकिन हम इस जन्म के चक्र से स्वयं को निकाल शरीर की बदली हुई नश्वर पर्यायों में न नीर निधि से धीर हो, वीर बने गम्भीर नहीं पाये। हमारा जीवन धर्मामृत की वर्षा होने के | उलझें । शरीर का बदलना तो ऐसा है कि जैसे पूर्ण तैर कर पा लिया, भवसागर का तीर । उपरान्त भी अमृतमय नहीं हुआ। जरा देर के लिए पुराना वस्त्र जब जीर्ण-शीर्ण होकर फटने लग जाता अधीर हूँ मुझ धीर दो, सहन करूँ सब पीर बाहर से भले ही अमृत से भीगा हो लेकिन भीतर | है तब उसे उतारकर दूसरा वस्त्र धारण कर लिया | चीर-चीरकर चिर लखू, अंदर की तस्वीर ।। तक भीग नहीं पाया। जाता है, ऐसे ही जब तक यह आत्मा संसार से भीतर तक भीगने के लिए अन्तर्मन की मुक्त नहीं होती तब तक नई-नई पर्याय अर्थात् शरीर बोधकथा अतिनिन्दनीय और अतिप्रशंसनीय • नेमीचन्द पटोरिया गुरुकुल के निर्धारित विषय अध्ययन कर | गये । एक माह बाद दोनों लौटे। संपूर्ण छात्र- | वस्तु नहीं है, क्योंकि नरदेह से ही हमें सद्ज्ञान सुभद्र और जयन्त दोनों विद्यार्थी स्नातक पद के मंडली के बीच आचार्य ने दोनों शिष्यों को मिलता है जिससे अन्य वस्तुओं की उपयोगिता योग्य हो गये। दीक्षान्त-समारोह का समय केवल बुलाया और उनकी एक माह की खोज का फल का पता चलता है। नर-देह से ही संयम पलता है। एक माह शेष रहा। दोनों प्रसन्नथे। सायंकाल के पूछा। जो हमें स्वर्ग के सुखों और मोक्ष तक की प्राप्ति | समय गुरुकुल के आचार्य ने उन दोनों को अपने सुभद्र बोला, मैने घास, पात, काँटे, राख में सहायक होता है। इस नर-देह को शास्त्रों में| कक्ष में बुलाया। दोनों विद्यार्थी सोच रहे थे कि सभी पदार्थ देखे, पर वे खाद में या क्षेत्र-सीमा चिन्तामणि-रत्न कहा है। मेरी खोज का सार यही| पूर्ण अध्ययन होने के उपलक्ष्य में आचार्यश्री कुछ लगाने में उपयोगी पाये । पशु-पक्षियों के शव | है कि नरदेह ही संसार में सबसे अधिक प्रशंसनीय उपहार या शुभाशीष देंगे। दोनों शिष्य गुरुचरण भी देखे उनकी खाल, उनके पंख या बाल यहाँ और उपयोगी है।" स्पर्श कर विनयपूर्वक खड़े रहे। आचार्य बोले - तक कि हड्डियाँ भी तरह-तरह की वस्तुओं के । विद्यार्थी विरोधी बातों को सुनकर असमंजस "मेरे प्रिय शिष्यो ! तुम दोनों ने गुरुकुल की निर्माण करने में उपयोगी मिलीं। विष-वृक्ष और में पड़ गये। तब आचार्यश्री गंभीर वाणी में बोले शिष्य-परम्परा में श्री-वृद्धि की है, इसका मुझे विषैले जन्तु भी देखे, लेकिन उनका प्रयोग वैद्यक - 'मेरे इन दोनों शिष्यों के निष्कर्ष सही हैं। हर्ष है। तुम्हारा पठनात्मक अध्ययन तो पूरा हुआ ग्रंथों में रोग-उपचार में मिला। अगर कोई निंद्य वास्तव में यह नर-देह सब गंदी व निंद्य वस्तुओं लेकिन प्रयोगात्मक अभी अवशेष है। या निरुपयोगी वस्तु मिली है तो वह है नरदेह। का भंडार है, व उसके सदा बहने वाले नौ मल। दोनों शिष्य बोले- 'श्रीगुरु की शरण-छाया यह नरदेह संसार की गंदी वस्तुओं का भंडार है द्वार हैं। मृत नरदेह किसी भी काम में नहीं आती में हम प्रयोगात्मक पाठ भी पूरा करने को कटिबद्ध और मरने पर इसका कोई उपयोग नहीं है। यदि है, अतः नर-देह अतिनिंद्य और निरुपयोगी है, हैं।' आचार्य बोले - "मुझे तुमसे ऐसी ही आशा नर-शव को तुरंत गाड़ा या जलाया न जाये तो लेकिन इसी देह से हम संयम व तप कर सकते थी। अच्छा तो चिरंजीव सुभद्र ! तुम प्रातः काल- वह वहाँ के वातावरण को इतना दूषित कर देता हैं, ज्ञानार्जन कर सकते हैं और इतने ऊँचे उठ उत्तर दिशा की ओर एक माह के लिए पद-यात्रा है कि उसके पास से निकलना भी स्वास्थ्यकर सकते हैं कि संसार की विभूति इसके चरण-रज करो और इस यात्रा में तुम्हें यह खोजना है कि नहीं है। मेरी खोज का सार यही है कि संसार में की बराबरी नहीं कर सकती है। स्वर्ग और संसार में सबसे निंद्य और निरुपयोगी कौन वस्तु सबसे निंद्य और निरुपयोगी यह नर-देह ही है।" मोक्षदायिनी यह नरदेह है, अतः नरदेह पाकर है ? और चिंरजीव जयन्त ! तुम प्रातःकाल ____ अब जयन्त की बारी आयी, वह उठ खड़ा यदि कुमार्ग की ओर चला जाए तो वह संसार में दक्षिण दिशा की ओर पद-यात्रा करो और इस हुआ और बोला-“मैंने पौधे, नदी, पर्वत, अतिनिंद्य और निरुपयोगी है, और यदि सन्मार्ग यात्रा में तुम्हें यह खोजना है कि संसार में सबसे फल-फूल सब उपयोगी वस्तुएँ देखीं। अनेक की ओर चले तो उससे प्रशंसनीय और उपयोगी प्रशंसनीय और उपयोगी कौन वस्तु है ? तुम दोनों प्रकार के उपकारी पशु भी देखे। अनेक अचूक संसार में कोई नहीं है।" को एक माह में अपनी-अपनी खोज का निष्कर्ष जड़ी-बूटियाँ और औषधियाँ भी जानीं । चाँदी, दोनों विद्यार्थियों ने अपने अनुभव से जान मुझे देना है।" सोनेवरत्न के भंडारों का भी मैने निरीक्षण किया, लिया कि संसार की अतिनिंद्य और - प्रातः दोनों शिष्य आचार्यश्री का आशीर्वाद लेकिन जैसी प्रशंसनीय और उपयोगी यह नरदेह अतिप्रशंसनीय वस्तु क्या है। प्राप्त कर निर्धारित दिशा की ओर प्रस्थान कर | है वैसी संसार के समस्त जड़ व चेतन में कोई 'सोना और धूल' से साभार Jain Education International - अप्रैल 2001 जिनभाषित 5 ___www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only

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