Book Title: Jambuswami Charitra
Author(s): Deepchand Varni
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 12
________________ (११) इस प्रकार वे दोनों अपने २ ध्यानमें मग्न नगरसे लगभग १ कोस बाहर निकल गये, परंतु मुनिराजने भवदेवको पीछे लौटनेको न कहा। भवदेवमनमें विचारने लगा कि एक कोस तो आ गये, अब न मालूम भाई कितनी दूर जायेंगे? जो मुझे आज्ञा दे देते तो मैं घर चला जाता। आगे जाकर भी क्या जाने ये मुझे पीछे आने देंगे कि नहीं ? इत्यादि संकल्प करते चला जा रहा था। मुनिराज न तो इसे कहते थे कि साथमें आओ और न पीछे ही जानेकी आज्ञा देते थे। वे तो मौनावालंबन किये चले ही जारहे थे । वे मनमें विचारते थे कि यदि भवदेव गुरुके पास पहुँचकर इस असार संसारका परित्याग कर दे तो अच्छा हो, क्योंकि इसकी आत्माने जो मिथ्यात्वकेवशवर्ती होकर अशुभ कर्मका बंध किया है सोजिनेश्वरी तपश्चरणसे छूट जायेंगे और उत्तम सुख प्राप्त हो नायगा। अहा ! भ्रातृस्नेह इसीका नाम है कि भव-समुद्रमें गोते खाते हुए अपने भाईको निकालकर सच्चे सुख मार्गमें लगाना । संसारमें और ऐसे भाई विरले ही होते है, जो विषय कषायोंसे छुड़ावें। फंसानेवाले तो अनेक है। भावदेवने मरदेवके साथ नो सच्चा प्रेम प्रगट किया वह अनुकरणीय है। इसी प्रकार अपने २ विचारों में निमग्न हुए वे दोनों भाई नगरसे अनुमान तीन कोस दूर वनमें जा पहुंचे, हाँ श्रीगुरु संघसहित तिष्ठे थे। दोनोने थयायोग्य गुरुको विनयसंयुक्त नमस्कार किया और निज निन योग्य स्थानमें बैठ गये। तब सपके दूसरे मुनियोंने पूछा-' यह दूसरा आपके साथ कौन है?" मावदेव मुनिने उत्तर दिया-" यह हमारा छोटा

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