Book Title: Jambuswami Charitra
Author(s): Deepchand Varni
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 38
________________ ( ३७ ) 46 पहिलेहिसे जो विरक्त थे, तापर मुन भवसार । फेर धर्म उपदेश सुन, अब को रोकनहार ? || " स्वामी तुरंत ही कहने लगे (( 'हे नाथ ! मैंने इस थोड़े से ही जीवनमें घोर कर्मो का चंच किया है । ययार्थमें यह संसार मरुस्थिल समान असार है और आप कल्पवृक्षके समान सुखदाता है, अनादि काल से मोहनींद में सोये हुए जीवोंको जगानेवाले है, सच्चे करुणासागर हैं। मुझे अपना सेवक बनाइये और दीक्षा देकर पार उतारिये । " स्वामी के ऐसे वचन सुनकर मुनिवर बोले - " वत्स ! अभी तुम्हें दीक्षा देंगे ।" गुरुके ये 66 तुम घर जाओ, पीछे आना, तत्र वचन सुनकर राजा हर्षित हुए और सराहना करने लगेधन्य धन्य गुरु राय तुम, सवदीको मुख दैन । परमविवेकी समय लख, कहे उचित ये वैन ||" और उठकर गुरुको नमस्कार किया, विदा हुए और स्वामीका हाथ पकड़कर साथ ही रथमें बैठाकर नगरको ले चले। यद्यपि स्वामीको नगर में जाना अच्छा नहीं लगता था परंतु गुरु• नोंकी आज्ञा लोपना भी ऊचित नहीं है, ऐसा समझकर नगरकी ओर प्रयाण किया । ठोक है " " चाहे मन भावे नहीं, तहाॅ गुरुजनकी सीख । कबहुं भूल नहिं लोपिय, लोपें मांगे भीख ॥ स्वामीको घर आये देख माता पिता बहुत सुखो हुए, और स्नेहपूर्वक कहने लगे - "पुत्र 1 उठो, महलोंमें पधारो, ये मोगोपभोगकी सामग्रियाँ तैयार हैं सो भोगो, तथा हम लोगोंके नेत्रोंको

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