Book Title: Jainpad Sangraha 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 5
________________ भूमिका। हर्पका विषय है कि, आज हम अपने मजनप्रेमी पाठकोंके सप्रमुख दौलतविलासका द्वितीय संस्करण उपस्थित करनेको समर्थ हुए हैं । अबकी बार इसको हम जैनपदसंग्रह प्रथमभागके नामसे प्रकाशित करते हैं। क्योंकि जिस अभिप्रायसे हमने इसका दौलतविलास नाम रक्खा था, खेद है कि, उसकी पूर्ति न हो सकी। अर्थात् कविवर दौलतरामजीकी समस्त कविताका विलास हमको प्राप्त नहीं हो सका । एक एक पदपर एक एक पुस्तक देनेकी सूचना देनेपर भी हमारे जैनीभाइयोंके प्रमादसे हमको कविवरके समस्त पद नहीं मिले। लाचार हमने इसका नाम कविवर दौलतरामजीका पदसंग्रह रख दिया। पदसंग्रह नाम रखनेका एक कारण यह भी है कि, जैनियोंमें पदोंका बढ़ा मारी भंडार होने पर भी आजतक किसीने इसके प्रकाशित करनेका प्रयत्न नहीं किया। और दो चार महाशयोंकी कृपासे जो दो चार छोटी मोटी पुस्तकें संग्रह होकर प्रकाशित भी हुई हैं; वे ऐसी अशुद्ध और बेसिलसिले हैं कि, उनका प्रकाशित होना न होना बराबर ही है । इसलिये हमारी यह इच्छा हुई है कि, एक एक कविका एक एक पदसंग्रह पृथक् पृथक् करके क्र. मशः प्रकाशित करें । अर्थात् जैसे यह दौलतरामजीका पदसंग्रह प्रथमभाग है, उसीप्रकार पं० भागकचंदजीके पं० भूधरदासजीके संग्रहका द्वितीयभाग संग्रहका तृतीयभाग, कविवर द्यानतरायजीके संग्रहका चतुर्थभाग, आदि नामसे वह पदभंडार अपने पाठकोंके सम्मुख उपस्थित करें। ऐसा किये बिना हम अपने प्राचीन कवियोंके काव्य ऋणसे किसीप्रकार मुक्त नहीं हो सकते । यह कितनी बड़ी लज्जाकी बात है कि, हमारे लिये दिनरात परिश्रम करके हमारे पूर्वकवि जो एक भंडार बनाके रख गये हैं, उसे हम मेंडारोंमें पड़ा पड़ा सड़ने देवें, मूर्ख लेखकोंकी कलमकुटारसे नष्टभ्रष्ट होने देवं और उसके उद्धारका कुछ भीप्रयत्न न करें। आशा है कि,

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