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જૈનયુગ
ભાદ્રપદ-આધિન ૧૯૮૨ परस्पर ले लेना कोई बुरी बात नहीं. बुद्धि सकता हां ! यह वात उनमें अवश्य थी किऔर शासपर किसीका कंट्रोल नहीं है, उनके पास आनेवाले जिज्ञासु कों वे सुखका वैदिकधर्म और जैनधर्म भिन्नरूपसे जो मार्ग बतलाते थे किन्तु अपना समझके नहीं समझा जाने लगा यह दोनों समाजो का “गरोह नत्थि मे कोई नाहमन्नस्स कस्सई" परस्पर द्वेष और कलहके कारण समझा यह तत्व उनका सदा सर्वदा अविच्छिन्न रहा जाने लगा. शंकराचार्य, रामानुज, मध्व है. गौतमबुद्धने लोकसंग्रह पर दृष्टि रखकार
और बल्लभ आदि शैव और वैष्णव सभ्भ- उपदेश किया है. धर्मका प्रचार बढाया है दायोंकी स्थापनाएँ हुई और एक कह हम परंतु महावीर को यह भी अपेक्षा नहींथी. वैदिक है. दुसरे सब नास्तिक है. 'दुसरे कहें उनका तो यही सिद्धांत था कि " कहेताहूं हम वैदिक है अन्य सब नास्तिक है. ऐसा कहे जातहूं देताहूं हेला ! गुरुकी करणी गुरु परस्पर वैदिकोंमें कलह फैला उस समयके गया ओ चेलेकी चेला" ऐसे सर्वोपरि जैनचार्योंने स्वधर्मकी रक्षाके लिए प्रथकत्व सत्यवक्ताओंको इस बातकी अपेक्षा होही स्वीकार कर लिया. परंतु महावीर के नहीं सकती. इसीसे महावीरके समयम जैन समयमें ऐसा भेद नहीं पड़ा था. कई समाज कृशावस्थामें था. वरना वे चाहते तो पारिवाजकोंने महावीरसे व्रत नियम लिये करोडोंकी संख्या कर सकते थे. परंतु करना हैं और वस्त्रपात्र पहले थे वैसेही रक्खे है. किसकों था ? न घटाना था और न बढाना महावारका धार्मिक आधिपत्य स्वीकार कर था जो होताहो वह होता हैं यह दशा थी लेनेवाले परिव्राजकों को यदि महावीर यह और यही दशा पहले जितने तीर्थकर हुवे है कह देते कि तुम कुलिंग मत रक्खों । तो क्या उनकी रही है और रहेगी. समाजसंगठन वे नहीं मानते ? मै तो समज्ञताहं वे अवश्य का कार्य गणधरों द्वारा होना संभव हो सशिरसावन्ध रखकर आज्ञा स्वीकार करलेतें कता है किन्तु तीर्थकर केवल आत्मज्ञानमही परंतु महावीरकों इस बातकी जरूरीही नहीं मग्न होते हैं. दुःखोंसे गभराते नहीं और थी. वस्त्र रक्खें तो क्या ? न रक्खें तो क्या ? सुखोंको चहाते नहीं. अर्थात् महावीर देवके इन बातोमें उन्हें तत्त्व नहीं दीखताथा. वेतो समयमें वैदिक धर्म के साथ आजके सदृश तत्त्वज्ञानमयि बने हुवे मस्तराम थे. कोई माने भिन्नता नहींथी और उस जमानेमें आज या न माने ! शत्रु रहे या मित्र बनें उनकों सरीखा जाति और धर्मके कठोर बंधनोंमें इसकी अपेक्षाही नहींथी. दुःखों को आ- बंधा हुआ कोई समाज नहीं था. वैदिक उपाह्वाहन कर भोगलेना, जन्म-मरण परंपरा सनामें विष्णु, शंकर, शक्ति, सूर्य, गणपति इसी भवमें काटदेना यह एकही ध्येय था. इस प्रभृति देवोंकी उपासना करतेथे वैसेही तीर्थध्येयकों रखनेवालेके कोई शत्रुमित्र हो नही करोंकी उपासमा किया करतेथे. ऐहिक