Book Title: Jain Tattvavidya
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 13
________________ ३. संसारी जीव के दो-दो प्रकार हैं२. अव्यवहारराशि १. व्यवहारराशि २. अभव्य २. स्थावर २. बादर २. अपर्याप्त १. भव्य १. त्रस १. सूक्ष्म १. पर्याप्त व्यवहारराशि- अव्यवहारराशि वर्ग १, बोल ३ / ११ संसारी जीव दो-दो वर्गों में विभक्त होकर कई प्रकार के हो जाते हैं । उनमें एक वर्ग है व्यवहार राशि और अव्यवहार राशि का । व्यवहार का अर्थ है भेदविभाग । जो जीव अनेक भेदों में विभक्त हैं, वे व्यवहार राशि के जीव हैं । जैसे—एक इन्द्रिय वाले जीव, दो इन्द्रिय वाले जीव, तीन इन्द्रिय वाले जीव, चार इन्द्रिय वाले जीव, पांच इन्द्रिय वाले जीव और अनिन्द्रिय- केवलज्ञान प्राप्त करने वाले जीव । व्यवहार शब्द का दूसरा अर्थ है - उपयोग। जो जीव हमारे व्यवहार — उपयोग में आते हैं, वे व्यवहार राशि के जीव हैं । जैसे— पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति आदि के जीव । व्यवहार राशि के जीवों का यह वर्ग बहुत बड़ा है। इस वर्ग के जीव अपने संचित कर्म और पुरुषार्थ के अनुसार भिन्न-भिन्न गतियों में उत्पन्न होते रहते हैं, संक्रांत होते रहते हैं । आज जो जीव मनुष्य हैं, वे कभी पशु, पक्षी, कीड़े आदि बन जाते हैं और जो कीड़े-मकोड़े हैं, वे कभी मनुष्य बन जाते हैं । इन जीवों में एक वनस्पति को छोड़कर शेष सब जीव प्रत्येक शरीरी - एक शरीर में एक जीव वाले होते हैं । वनस्पति साधारण - शरीरी भी होती है । साधारण - शरीरी का अर्थ है -- एक शरीर में अनन्त जीवों का आवास । ये सब प्रकार के जीव व्यवहार राशि के जीव हैं । जो जीव मुक्त होते हैं, वे अनादिकाल से चले आ रहे आत्मा और कर्मों के सम्बन्ध को विशेष साधना के द्वारा तोड़कर मोक्ष पहुंचते हैं। वे जीव भी इस व्यवहार राशि में ही होते हैं । व्यवहार राशि के जीव संख्या में अनन्त हैं, पर वे अव्यवहार राशिगत जीवों के अनंतवें भाग में भी नहीं आते हैं । I अव्यवहार राशि जीवों का अक्षय कोष है । ये वे जीव हैं, जिनमें किसी प्रकार का व्यवहार - विभाग नहीं होता । इन जीवों का हमारे लिए कोई उपयोग भी नहीं है । इस जीव-वर्ग में केवल वनस्पति के जीव हैं । वे भी साधारण वनस्पति के । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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