Book Title: Jain Tattvavidya
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 11
________________ १. राशि के दो प्रकार हैं १. जीव राशि २. अजीव राशि कालू तत्त्वशतक के चार वर्ग हैं। प्रत्येक वर्ग में पच्चीस-पच्चीस बोलों का संकलन है । २४x४ = १०० । इन चारों वर्गों में कुल मिलाकर सौ बोल हैं । अन्तिम वर्ग में एक बोल अधिक है । इस दृष्टि से १०१ बोल हो गए हैं । प्रत्येक बोल का स्वतन्त्र अस्तित्व भी है और वे परस्पर संबंधित भी हैं। प्रथम बोल के अनुसार राशि के दो प्रकार हैं— जीव राशि और अजीव राशि | राशि का अर्थ है वर्ग । संसार के सारे पदार्थ - जीव और अजीव, इन दो वर्गों में विभक्त हैं । इन दो वर्गों के अतिरिक्त किसी तीसरे वर्ग की कल्पना भी नहीं हो सकती । जीव एक तत्त्व है । वह अपने गुण और पर्यायों से सम्पन्न है । उसका अस्तित्व त्रैकालिक है । त्रैकालिक का अभिप्राय है- वह अतीत काल में था, भविष्य में रहेगा और वर्तमान में है । इसी प्रकार अजीव तत्त्व अपने गुण और पर्यायों से सम्पन्न है । जीव की भांति यह भी तीनों कालों से जुड़ा हुआ है। विश्व के पदार्थों का यह एकदम संक्षिप्त वर्गीकरण है । इससे छोटा और कोई वर्ग नहीं हो सकता । जैन दर्शन में दो प्रकार की दृष्टियां हैं— संक्षेप दृष्टि और विस्तार दृष्टि । दूसरे शब्दों में इन्हें संक्षेपनय और विस्तारनय भी कहा जाता है। उक्त विवेचन संक्षेप दृष्टि या संक्षेपनय के आधार पर किया गया है । जीव और अजीव – ये दोनों नौ तत्त्वों में दो तत्त्व हैं। दोनों तत्त्व अनंत शक्ति से सम्पन्न हैं । जीव तत्त्व की शक्ति चेतना शक्ति है। चेतना जीव का मुख्य लक्षण है। अजीव तत्त्व चेतना और अनुभूति से शून्य जड़ तत्त्व है । पर विश्व की संरचना में जीव की भांति अजीव का भी पूरा उपयोग है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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