Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 01
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 182
________________ ( १७४ मान्यता वाले ने दूसरे द्रव्यों के अस्तित्व, वस्तुत्व, और द्रव्यत्व गुरण को नहीं माना और साथ ही अपने अस्तित्व, वस्तुत्व और द्रव्यत्व गुण को उड़ा दिया । उ० प्र० १६. अपनी आत्मा का और दूसरे अनंत पुद्गलों के अस्तित्व, बस्तुत्व और द्रव्यत्व गुण को न मानने से क्या नुकसान हुआ ? सच्चा वस्तु स्वभाव न मानने के कारण और दूसरे के प्रस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व से अपना अस्तित्वपना आदि मानने से एक २ समय करके अनादि से आकुलताको माप्त कर बहुत दुःखी होता है और उसका फल निगोद होता है । प्र ० २०. अपने अस्तित्व, वस्तुत्व और द्रव्यत्व को और दूसरे के अस्तित्व, वस्तुत्व द्रव्यत्व को कब माना । उ० मेरा अस्तित्व अनन्त गुणों का अभेद पिण्ड से है, वह प्रभेद पिण्ड अपना २ प्रयोजनभूत कार्य करता हुआ, निरन्तर बदलता हुआ, कायम रहता है । और द्रव्यकर्म, तैजस शरीर, प्रादरिक शरीर में भी एक एक परमाणु कायम रहता हुआ, अपना २ प्रयोजनभूत कार्य करता हुआ, निरतर बदलता रहता है, ऐसा जानकर अपने अस्तित्व की ओर दृष्टि करे तो इसने अस्तित्व वस्तुत्व और द्रव्यत्व गुण को माना । १० २१. अपने और पर के अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व गुण को मानने का क्या फल है ?


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