Book Title: Jain Siddhant Kaumudi
Author(s): Sushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti

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Page 14
________________ 88888888888888888888888 888888888888888 विषय प्रवेश यह रचना संस्कृत श्लोकों में निबद्ध है। अत: विषय वस्तु का संक्षिप्त परिचय भी इस भूमिका के माध्यम से प्रस्तुत करना अपना पुनीत कर्त्तव्य समझता हूँ - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र - ये तीनों | संवलित रूप से मोक्षमार्ग हैं। इन्द्रिय मन के विषयस्वरूप समस्त 8 पदार्थों की प्रशस्त दृष्टि - श्रद्धा को 'सम्यग्दर्शन' कहते हैं अर्थात् 8 विपर्यय और अनध्यवसाय आदि दोषों से रहित युक्ति संगत दर्शन को सम्यग्दर्शन कहते हैं। जैनागम शास्त्रों में सम्यग् दर्शन की | | पहचान कराने के लिए प्रशमादि पाँच लिङ्ग प्रतिपादित हैं - १. प्रशम - पदार्थों के असत् पक्षपात से होने वाले कदाग्रह आदि दोषों का उपशम/शान्ति ही 'प्रशम' कहलाता है। प्रशम की स्थिति में क्रोधादिक कषायों का उद्रेक पूर्णत: निग्रहीत/नियन्त्रित होता है। २. संवेग - सांसारिक बन्धनों का भय ही 'संवेग' कहलाता है। ३. निर्वेद - संसार, शरीर और भोग रूपी कषायों में आसक्ति का कम होना निर्वेद कहलाता है। ४. अनुकम्पा - दु:खी जीवों के दु:ख दूर करने की इच्छा 'अनुकम्पा' कहलाती है। ങ്ങൾക്ക @ । म्यारह 88888888888888888888888888888888888888888888

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