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શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ
વૈશાખ
अभिषेक, पुष्पमाल, आंगीरचना, रक्षारोहण आर करोडों रुपये के मन्दिर वगैरह विभूति के होने पर भी वीतराग तो वीतराग ही है । दिगम्बर सम्प्रदाय इन बातों से सहमत
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इस स्तोत्र में वस्तुतः महिमादर्शक दूरवर्ति विभूति जैसी कि पुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनि, भामण्डल और दुन्दुभि का वर्णन किया नहीं है । उस वर्णन का अभाव और निकटवर्ती विभूति के सद्भाव से • अंगपूजा " का पक्ष सप्रमाग हो जाता है । यह दिगम्बर विद्वानों को खटका और उन्होंने नये ४ काव्य बना कर इस स्तोत्र में जोड दिये । असल में भक्तामर स्तोत्र के ४४ काव्य हैं, विक्रम की बारहवीं शताब्दी के भक्तामर - वृत्तिकार ने ४४ काव्य की वृत्ति की है। और आज भी श्वेतांबर समाज ४४ काव्य को प्रमाण मानता हे | परन्तु दिगम्बर समाज ४८ काव्यों को मानता है
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काव्य २९ में प्रभु के भूमि पर चरणस्थापन और देवकृत कमलरचना का वर्णन है । दिगम्बर समाज योजन प्रमाग उच्च कमलों पर प्रभु का विहार मानता है ।
काव्य ३३ में निकटवर्ति विभूतियों की तारीफ है । दिगम्बर समाज निकटवर्ति विभूति - महिमादर्शक क्रिया - अंग पूजा को वीतराग के दूषणरूप मानता है ।
काव्य ३४ में भयभेदकत्व वर्णित किया है । काव्य ४४ में माला धारण करने का निर्देश है। दिगम्बर समाज इससे भी इतराज करता है
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इन सब काव्यों से आ० मानतुंगसूरि का श्वेताम्बर होना सिद्ध होता है ।
दिगम्बर समाज आपके भक्तामर स्तोत्र से मुग्ध होकर उसे शास्त्र की श्रेणी में दाखिल करके आपको दिगम्बर आचार्य मानलेता है । दिगम्बर आचार्यों ने आपकी जीवनी स्वीकारी है, सिर्फ उसमें से आपके गच्छ, गुरु, शिष्य और दूसरी ग्रन्थरचना को उड़ा दिया है । महापुरुष के अच्छे ग्रन्थ को अपनाना वो न्याय है किन्तु उनके ऊपर अपने सम्प्रदाय की महोरछाप लगा देना तो किसी तरह उचित नहीं है |+
और आपको व (क्रमशः )
सारांश यह है कि --आ० मानतुंगसूरि श्वेतांबर आचार्य हैं, आपके भक्तामर स्तोत्र को दिगम्बर सम्प्रदाय ने स्वीकारा है ।
* अनी हितुस्तीर्थकृतोऽपि विभूतयः जयन्ति ।
-- पूज्यपाद शोभनमुनिजी ने
पू० श्री
+ पं० धनपाल कवि ने " तिलकमंजरी " बनाई है । श्वेतां यदन की चूलिकास्तुतिरूप " चतुर्विशिका" बनाई है । ये दोनों श्वेताम्बर हैं । चतुर्विशति का दिगम्बरीय किसी भी धर्म विधि के साथ सम्बन्ध नहीं है, फिर भी " चतुर्विंशति से आकर्षित होकर दिगम्बर समाज शोभनमुनिजी को दिगम्बर ही मानता है ।
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