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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ૫૧૮ શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ વૈશાખ अभिषेक, पुष्पमाल, आंगीरचना, रक्षारोहण आर करोडों रुपये के मन्दिर वगैरह विभूति के होने पर भी वीतराग तो वीतराग ही है । दिगम्बर सम्प्रदाय इन बातों से सहमत Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस स्तोत्र में वस्तुतः महिमादर्शक दूरवर्ति विभूति जैसी कि पुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनि, भामण्डल और दुन्दुभि का वर्णन किया नहीं है । उस वर्णन का अभाव और निकटवर्ती विभूति के सद्भाव से • अंगपूजा " का पक्ष सप्रमाग हो जाता है । यह दिगम्बर विद्वानों को खटका और उन्होंने नये ४ काव्य बना कर इस स्तोत्र में जोड दिये । असल में भक्तामर स्तोत्र के ४४ काव्य हैं, विक्रम की बारहवीं शताब्दी के भक्तामर - वृत्तिकार ने ४४ काव्य की वृत्ति की है। और आज भी श्वेतांबर समाज ४४ काव्य को प्रमाण मानता हे | परन्तु दिगम्बर समाज ४८ काव्यों को मानता है 1 काव्य २९ में प्रभु के भूमि पर चरणस्थापन और देवकृत कमलरचना का वर्णन है । दिगम्बर समाज योजन प्रमाग उच्च कमलों पर प्रभु का विहार मानता है । काव्य ३३ में निकटवर्ति विभूतियों की तारीफ है । दिगम्बर समाज निकटवर्ति विभूति - महिमादर्शक क्रिया - अंग पूजा को वीतराग के दूषणरूप मानता है । काव्य ३४ में भयभेदकत्व वर्णित किया है । काव्य ४४ में माला धारण करने का निर्देश है। दिगम्बर समाज इससे भी इतराज करता है | इन सब काव्यों से आ० मानतुंगसूरि का श्वेताम्बर होना सिद्ध होता है । दिगम्बर समाज आपके भक्तामर स्तोत्र से मुग्ध होकर उसे शास्त्र की श्रेणी में दाखिल करके आपको दिगम्बर आचार्य मानलेता है । दिगम्बर आचार्यों ने आपकी जीवनी स्वीकारी है, सिर्फ उसमें से आपके गच्छ, गुरु, शिष्य और दूसरी ग्रन्थरचना को उड़ा दिया है । महापुरुष के अच्छे ग्रन्थ को अपनाना वो न्याय है किन्तु उनके ऊपर अपने सम्प्रदाय की महोरछाप लगा देना तो किसी तरह उचित नहीं है |+ और आपको व (क्रमशः ) सारांश यह है कि --आ० मानतुंगसूरि श्वेतांबर आचार्य हैं, आपके भक्तामर स्तोत्र को दिगम्बर सम्प्रदाय ने स्वीकारा है । * अनी हितुस्तीर्थकृतोऽपि विभूतयः जयन्ति । -- पूज्यपाद शोभनमुनिजी ने पू० श्री + पं० धनपाल कवि ने " तिलकमंजरी " बनाई है । श्वेतां यदन की चूलिकास्तुतिरूप " चतुर्विशिका" बनाई है । ये दोनों श्वेताम्बर हैं । चतुर्विशति का दिगम्बरीय किसी भी धर्म विधि के साथ सम्बन्ध नहीं है, फिर भी " चतुर्विंशति से आकर्षित होकर दिगम्बर समाज शोभनमुनिजी को दिगम्बर ही मानता है । "" For Private And Personal Use Only
SR No.521521
Book TitleJain Satyaprakash 1937 05 SrNo 22
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1937
Total Pages44
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size20 MB
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