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दिगम्बर शास्त्र कैसे बने?
लेखक-मुनिराज श्री दर्शनविजयजी
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(गतांक से क्रमशः) प्रकरण ११-आ० श्री मानतुंगसूरि भगवान् महावीरस्वामी की शिष्य परंपरा में १६ आ. श्री सामन्तभद्रसूरिजी के पश्चात् क्रमश: १७-वीर नि० सं० ५९५ में कोरन्टा में प्रतिष्ठाकारक आ० श्री० वृद्धदेवमूरि, १८-आ० श्री प्रद्योतनसूरि, १९-आ० श्री मानदेवसूरि और २०-आ० श्री मानतुंगसूरि पट्टधर हुए।
आ० श्री मानतुंगसूरि गणधर सुधर्मास्वामी से २० वें और वनवासी गच्छ के चौथे आचार्य थे । महाकवि बाण और मयूर आपके समकालीन पंडित थे। जब आपने भक्तामर स्तोत्र बनाकर राजा को प्रतिबोध किया तब उनकी विद्या के चमत्कार से राजा उन्हें अधिक मानने लगा, आपने नमिऊण नामक महाभयहर स्तोत्र बनाकर नागराज को भी अपने वश किया था। इनके अलावा भक्तिभर इत्यादि अनेक स्तोत्र आपने बनाये हैं।
इन सब स्तोत्रों को पढकर कोई भी विद्वान् आपके श्वेतांबर होने का दावा कर सकता है । इसके लिए लोकप्रसिद्ध भक्तामर स्तोत्र के कतिपय काव्य देखिए
काव्य २५ में और और देवों के नाम से तीर्थंकर भगवान की तारीफ की है। इसमें बाह्य औपचारिक उपमा है। दिगम्बर सम्प्रदाय में बाह्य उपचार इष्ट नहीं है। काव्य २९ में तीर्थंकर भगवान् को सिंहासन में रहे हुए बतलाये हैं (कल्याणमन्दिर स्तोत्र काव्य २३ में भी यही निर्देष है) । दिगम्बर समाज भगवान को सिंहासन से भिन्न उपर रहे हुए मानता है, जब इस काव्य में प्रभु और सिंहासन का सम्बन्ध बताया गया है । काव्य २८, २९, ३०, ३१ में प्रभु की देवकृत विभूतियां- अशोक वृक्ष, सिंहासन, छत्र और चामर का वर्णन है । तीर्थंकर की स्तुति में इस निकटवर्ती विभूति का वर्णन इष्ट माना गया है। श्री पार्श्वनाथ भगवान के उपर शेषनाग की फणा की जाती है, सो भी अंगत विभूति है। जैसे इन विभूतियों के होने पर भी तीर्थकर वोतराग है, वैसे ही
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