Book Title: Jain Satyaprakash 1937 05 SrNo 22
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 15
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૯૨૩ સમાન્ય ધમ પર૩ / भी विवाद होता हो नहीं; लेकिन धर्म ही ऐसी चीज है जो न तो व्यवहार का विषय है और न तो स्पर्शादि से परीक्षा करने के लायक है। इतना होने पर भी धर्म को परीक्षा किसी तरह से नहीं हो सकती है, ऐसा नहीं है । जैसे आत्मा, बुद्धि आदि पदार्थ व्यवहार और स्पर्शादि का विषय नहीं हैं तब भी उन आत्मादिक पदार्थों को अकलमंद आदमी अनुमान से पहिचान सकता है उसी तरह धर्म की परीक्षा भी अकलमंद आदमी दिमाग से कर सकता है । व्यापक धर्मकी स्थितिः - जगत के सभी अकलमंद आदमियों को इस बात का तो पूरा निश्चय ही है कि किसी को भी सताना, झूठ बोलना, किसी की चीज को छीन लेना, औरत पर खराब निगाह करना और सभी तरह से संग्रहशील बनना, ये सब कार्य बुरे माने गये हैं । याने इन सताना आदि कार्यों को रोकने से ही धर्म हो इस बात में कोई भी आदमी उजर नहीं कर सकता। लेकिन समझदार मनुष्य वर्ताव की जितनी कीमत करे उससे ज्यादा कीमत अच्छे विचार की करते हैं । इसीसे ही महर्षि फरमाते हैं कि हरेक धार्मिक आदमी को चाहिए कि अपने वर्तन को सुधारने के साथ साथ विचारशीलता को भी उन्नत बनावे | सामान्य रूप से सभी मनुष्य उन्नत विचार की ही चाहना करते हैं, लेकिन कितनेक मनुष्यों को उन्नत विचार किसको कहना उसका भी ख्याल नहीं होता है । और कितनेक आदमी ख्याल होने परभी उन्नत विचार का परिशीलन करने में ही मंद रहते हैं । लेकिन यह बात निश्चित है कि - जिस आदमी को उन्नत विचार का ख्याल होगा वही उन्नत विचार का परिशीलन कर सकेगा । इससे धर्म का असली स्वरूप जो विचार का औन्नत्य है उस पर गौर करने की जरूरत है । " विचार औन्नत्य के भेदः - आदमी को धर्म में प्रवृत्त होने के साथ विचार औन्नत्य आवश्यक है यह बात सभी दर्शनवाले को मंजूर करना ही होगा । किसी दर्शनवाले ने यह नहीं कहा है कि विचार की अधमता के साथ धर्म के अनुष्टान धर्मरूप में गिने जाय । चाहे तो किसी को दान दें, सवर्त्तन रक्खें, अनेक तरह की तपस्या करके कष्ट उठावें, या संसार की माया से दूर होने का चित्त करें । लेकिन जब तक विचार का औन्नत्य न हो तब तक उन दानादिक को कोई भी दर्शनवाला धर्म नहीं मान सकता है । यह बात भी ख्याल करने के योग्य है कि जैसे दानादिक की प्रवृत्ति करने पर भी विचार का औन्नत्य नहीं होवे तब सच्चा धर्म नहीं हो सकता है, उसी तरह से विचार का औन्नत्य होने पर अवश्य दानादिक की प्रवृत्ति न भी हो, तब For Private And Personal Use Only

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