Book Title: Jain Satyaprakash 1937 04 SrNo 21
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
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४८२
ચિત્ર
શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ एकवारथी निर्वाह न थतो होय अने संयमादि गुण सीदाता होय तो बे वार शुद्ध आहार लईने पण संयमादि गुणने साधे, माटे आ व्यवस्था तो मोक्षसाधनना अधिकारमाथी च्युत थतां जीवोने टकावी राखे छे; आवी व्यवस्थानी क्षुल्लक क्षुल्लिकादिमां जरूर देखाती होबाथी तेनां नामो शास्त्रोमां आपवामां आवेल छे ।
वळी ए पण एक वस्तु ध्यानमा राखवानी जरूरत छे के साध्य एक होय छतां पण व्यक्ति विशेषने आश्रीने जुदी जुदी जातना साधनो अंगीकार करवां पडे छे । जो के साधन सिवाय साध्यनी सिद्धि थती नथी परन्तु ते साधन दरेकने माटे एक ज होई शकतुं नथी। जेम कोई नगरमां परोपकारपरायण, कुशळ वैद्यनी दुकान होय तो तेनुं साध्य एक ज रहेशे के दर्दियोने रोगथी मुक्त करवा, जो के आनुं साधन औषध छे, छतां पण दरेकने माटे एक ज औषध होई शकतुं नथी, किन्तु देशने, कालने, वयने, व्याधिने अने व्यक्ति विशेषने आश्रीने जुदां जुदा औषधो अपाय छे, तेवी रीते धार्मिक बाबतमां पण तमाम दीक्षितोनु साध्य मोक्ष होय छे, परन्तु व्यक्तिविशेषने आश्रीने साधनोमां कथश्चित भिन्नता आवश्यक छ । दिगम्बरोने पण एक ज मोक्षमार्ग साध्य छतां दीक्षितोनो आचारभेद मानवो पड्यो छे । जुओ दिगम्बरग्रन्थ मूलाचार -
सपडिकमणो धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स । अपराधे पडिकमणं मज्झिमयाणं जिणवराणं ॥ ६२६ ॥ [सपतिक्रमणो धर्मः पूर्वस्य च पश्चिमस्य च जिनस्य । अपराधे प्रतिक्रमणं मध्यमानां जिनवराणाम् ॥ ६२६ ॥] जावेद अप्पणो वा अण्णदरे वा भवे अदीचारो। तावेदु पडिकमणं मज्झियमाणं जिणवराणं ॥ ६२७ ॥
यस्मिन् आत्मनो वा अन्यतरस्य वा भवेदतीचारः। तस्मिन् प्रतिक्रमणं मध्यमानां जिनवराणाम् ॥ ६२७॥] ईर्यागोयरसुमिणादिसबमाचरदु मा व आचरदु । पुरिमचरिमादु सव्वे सव्वं णियमा पडिकमंदि ॥ ६२८ ॥ [ईर्यागोचरस्वमादि सर्वमाचरतु मा वा आचरतु।
पूर्वे चरमे तु सर्वे सर्वान् नियमान् प्रतिक्रमन्ते ॥ ६२९ ॥]
भावार्थ ---- प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव प्रभुना तथा चरम तीर्थकर महावीर प्रभुना तीर्थमा मनिओनो सप्रतिक्रमण धर्म छे अने मध्यम बावीश जिनना तीर्थमां अपराध लाग्यो होय त्यारे प्रतिक्रमण करवू, हमेशां नहि, तेवा प्रकारनो धर्म छ । ६२६ ।
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