Book Title: Jain Satyaprakash 1937 04 SrNo 21
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 34
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - mm- naamanna ५.२ ચિત્ર શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ संगत अर्थ घट शके उतने अंश में संगत अर्थ घटा देना यह तो है बुद्धिमत्ता। जहां नहीं घटता है वहां जबरन् घटने की चेष्टा करके असांगत्य पैदा करना कुचेष्टा मात्र है। अभिग्रह के जिस शेषांश के लिये शंका उठाई गई है, वह मंदिर मूर्ति में नहीं मानने वालेांकी साम्प्रदायिकता का प्रभाव है। टीकाकार भगवान् अभयदेवसूरिजी महाराज अपनी टीका में लिखते है _ 'तथा पूर्व-प्रथममगालप्तेन सता अन्य तीथिकैःतानेव 'आलपितुवी' सकृत्संभाषितुं 'सलपितुवा' पुन: पुन: संलापं कर्तु, x x x तथा 'तेभ्य:' अन्य यूथिकेभ्योऽशनादि दातुं वा सकृत अनुपदातुं वा पुन: पुनरित्यर्थ: अयं च निषेधो धर्म बुद्धथैव करुणया तु दद्यादपी ( आगमोदय स० म० उ० अ १ पृ० १३) अर्थात् —फिर अन्य तीर्थ कां से पहले विना बोलाये नहीं बोलुंगा, उन्ही से वारंवार नहीं बोलूंगा। फिर उन अन्यपृथिकां को अन्नादि नहीं दूंगा, वारंवार नहीं दूंगा यह निषेध धर्मबुद्धि से ही है । करुणा से तो दे भी सकता है। इस टीका में आलाप संलाप और अशनादि का सम्बन्ध अन्य तीर्थकों से ही है, न कि देवताओं से या चैत्यों से । ऐसी अवस्था में शंका उठानी ही निर्मूल है। सैन्धव नमक को भी कहते हैं, और सिन्धुदेश में पैदा हुये धोडे को भी। भोजन के प्रस्ताव में सैन्धव का अर्थ घोडा करना और सवारी के प्रस्ताव में नमक की इलिया करना जैसे असंगत माना जा सकता, वैसे ही अन्य तीर्थ के देवों से और अन्य तीर्थक परिगृहीत अरिहंत की प्रतिमाओं से आलाप संलाप और आहार पानी के सम्बन्ध में अर्थ करना । जहां जो अर्थ घटित होता है उसी में उसको धटाने से टीका में कोई असंगति नहीं आती। अरिहंत चैत्यों को – मन्दिर मूर्तियों को मानने वाले श्वेताम्बर यही मानते हैं और ऐसा ही अर्थ करते हैं। यह आर्थिक मान्यता अव्यवहारिक या अनुचित जरा भी नहीं है, विचारें। ___ आगे चलकर वे लिखते हैं - 'तेरापंथी सम्प्रदाय के स्व० विद्वान् आचार्य श्रीमद् जय महाराजने इसका खुलासा इस प्रकार किया है ---- 'अरिहंत चैत्य का अर्थ अरिहंत के साधु हैं और देव से अभिप्राय प्रसिद्ध विष्णु महेश से .नहीं परन्तु देव से अर्थ सुजेष्टाके पुत्र शिब (महादेव ) से है जिसका उल्लेख स्थानांग स्था. ९ में है'। जयाचार्य तेरापंथी थे, मन्दिर मूर्तियों में मानते नहीं थे, उपासक दशांग सूत्र में सिर्फ यही एक स्थान मन्दिर मूर्तियों का प्रतिपादक था । इससे जयाचार्य के मत को For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44