Book Title: Jain Satyaprakash 1937 04 SrNo 21
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 35
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૧૯૯૩ આનંદ શ્રાવક કા અભિય बाभारी धक्का लगता था, उन्होंने बडी खुबी के साथ देवताओं और प्रतिमाओं से आहार पानी, आलाप - संलाप का संबन्ध जोडकर ' देवयाणि' पद का अर्थ स्थानांग सूत्र का नाम लेकर सुयेश के पुत्र सात्यकि नाम के विद्याधर को महादेव रूप से बता दिया । स्थानांग सूत्र में 'नव में ठाणे में कहीं पर भी यह बात नहीं बताई है, कि सुजेष्टा का लडका महादेव था । हां भाविसिद्धों को सूचित करनेवाले सूत्र नं० ६९२ में बताया गया है कि - ५०३ एसणं अज्जो ! कण्हे वासुदेवे -१ रामे वलदेवे - २ उदये पेढालपुत्ते - ३ पहिले ४ सतते गाहावती -५ दारुते नितं-६ सचती नितंडी पुते ७ सावित बुद्धे अम्बडे परिव्वायते -८ अज्जाविणं सुपासा पासावचिज्जा - ९ आगमेस्सति उसपिणी ते चाज्जामं धम्मं पन्तवतिता सिज्जिहति जाव अंतं काहिति । ( आगमो० ठाणं० टा० १ सूत्र ६९२ ) इस सूत्र में सातवें नम्बर में सुज्येष्टा नाम की निग्रन्थी के पुत्र सात्याकिका नाम तो जरूर आया है, पर उसको महादेव नहीं बताया । टीकाकार ने इसकी संबन्ध - कथा भी लिखी है । उसमें कहीं भी वह महादेव था ऐसा वर्णन नहीं किया, उलटा लिखा है कि 1 ततोअसौ सर्वास्तीकरान् वन्दित्वा नाद्यंचोपदशर्याभिरमतेस्मेति । ' ( पृ० ४५८ ) For Private And Personal Use Only अर्थात्---श्रीतीर्थंकर भगवानों का दर्शन कर वह, क्रीडाओं को दिखाता हुआ आनन्द करता था । इस टीका और मूल सूत्र से तो वह सम्यक्त्वा साबित होता है । और भावसिद्धों की गणना में गिना जाता है । जयाचार्य ने यह बात कहां से लिखी ? रामपुरीयाजी स्पष्ट करें | इतना होने पर भी क्या जयाचार्य का मत ठीक है ? नहीं । क्योंकि 'अन्न उत्थिय देवयाणि ' पद है, यह बहुबचन प्रयोग है, सुजेष्टा का लडका महादेव एक है । वहुवचन का प्रयोग करने से वचनभेद होगा जो अनुचित है सुजेष्टा का लड़का भगवान श्री महावीर का भक्त था । अतः वह अन्ययुथिक भी नही था । सूत्रकार की पूज्य कोटि में भी वह नहीं था, जो बहुमान के खातिर ही उसके लिए बहुवचन का प्रयोग करते । ' अरिहंत चेड्याशि आदि को लेकर किया है वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि जमाल आदि के सिद्धांत-भेद हो जाने पर वे अरिहंत के साधु ही नहीं रहे । न - पत्र का अर्थ उनने जमालि भगवान महावीर देव के और

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