Book Title: Jain Satyaprakash 1937 04 SrNo 21
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 33
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - ૧૯૯૩ આનદ શ્રાવક કા અમરાહ ૫૦૧ मानकर क्षेपक की संभावना करना और देवयाशि को मौलिक मानना कहां का न्याय है ? विद्वान् पाठक स्वयं सोचें । किसी खास कारण के विना प्राचीन--अति प्राचीन प्रतियों के संगत पाठ को इस प्रकार जबरदस्ती से क्षेपक बना देना मिथ्यामोह के सिवाय अन्य कुछ नहीं है। फिर वे लिखते हैं --- 'कई एक प्रतियों में चेइयाई या अरिहंत चेइयाई न होकर चेइयाति या अरिहंत चेइयाति है'। ___ महोदय: पहले के दो रूप तो प्राकृत व्याकरण के नियमानुसार ठीक हैं ही। पर बाद के दो रुपों को भी यदि वे प्राचीन-अति प्राचीन प्रतियों में मिलते भी हैं, तो वे भी वैकल्पिक स्वरूप ही समझने चाहिये। अर्ध मागधी भाषा में ऐसे कई एक प्रयोग मिलते भी हैं। ग्रन्थलेखक लहिये, मुद्रणमशीन के टाइप भी तो नहीं हैं जो उनकी लिखि हुई प्रतियाँ सब एकसा रही है। संभव है चेइयाई-चेइयाति के पहले अरिहंत पद कहीं छूट गया हो, और इसी प्रकार इं के बदले ति, या ति के बदले इं लिखा गया हो। लहियो के लिये कहावत है 'नकल नवेशीअकलनदारद' -- और ऐसे निरक्षर भट्टाचार्यों से मक्षिका स्थाने मक्षिका का न्याय चरितार्थ हो यह स्वाभाविक है। अत: चेइयाई और चेझ्याति में भी अर्थभेद नहीं-विभक्ति भेद नहीं, सिर्फ स्वरुप भेद है। दोनो का अर्थ है अरिहंतो के मन्दिर या मूर्तियां।' रामपुरियाजी लिखते हैं कि अन्य मतावलम्बियों को नमस्कार वंदन न करने का, उनसे बिना बोलाए आलाप संलाप न करने का, उशन आदि न बहराने का अर्थ, अर्थदृष्टि से ठीक मालुम होता है। अन्य तीर्थ के देवों से अन्य परिगृहित प्रतिमा या अर्हत प्रतिमा को वंदन नमस्कार नहीं करूंगा। अभिग्रह का इतना अंश भी अर्थदृष्टि से टीक है, पर अभिग्रह के शेषांश के विषय में शंका उठती है, मैं अन्य तीर्थक के देव हरिहरादि से, और अन्य तीर्थकों द्वारा परिगृहीत अरिहंत प्रतिमा या प्रतिमा से बिना बोलाये बोलुंगा नहीं और न उनको अशन पानादि दूंगा, अभिग्रह का इतना अंश अर्थशून्य नजर आता है। प्रतिमा जैसे जड़ पदार्थ या हरिहरादि जैसे स्वर्गासीन देव कैसे किसी से पहले बात करेंगे या कैसे कोई उनको अन्नादि द्रव्य देगा यह समज में नहीं आता। ___ महोदय ! जब तक एक साम्प्रदायिक दृष्टि से इसका अर्थ किया जायगा, तब तक वह अर्थ जरूर निरर्थक और अर्थशून्य ही होगा। अभिग्रह के जितने अंश में ... १. चैत्यं “जिनोकस्तद्विम्बे' इति है हैं मानेकार्थकोशे For Private And Personal Use Only

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