Book Title: Jain Satyaprakash 1937 04 SrNo 21
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 37
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૯૩ આનંદ શ્રાવક કા અભિગ્રહ ૫૦૫ स्पष्ट नाम लिखा रहता है। यहां वैसा नहीं किया गया इससे भी स्पष्ट है कि किसी वर्तमान व्यक्ति के लिये नहीं बल्कि टीकाकार परिगृहीत देवों के लिये ही सूचित किया है । इस अभिग्रह के संबन्ध में जो असामंजस्य पैदा किया गया है वह सूत्र के अर्थ की खोचडी बना देने से ही हुआ है। टीकाकार को मान लेने पर किसी प्रकार का असामंजस्य नहीं रहता है 1 I वृत्तिकान्तार के सम्बन्ध में टीकाकार का मत ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की दृष्टि से सर्वथा ठीक है । जयाचार्य का मत गगाभियोग से सिद्ध हो जाता है। लोक समुदाय की किसी भी प्रेरणा से हुए काम को गगाभियोग सिद्ध कार्य माना जा सकता है। और इस तरह लोक लाज कुछ अलग अर्थ नहीं रखती । ऐसा होने पर वृत्तिकान्तार नाम का आगार ही निरर्थक हो जायगा । अमोलक ऋषिजी का मत एक अंश में टीकाकार से ● मिलता जुलता ही है । दापात्र प्राणियों को दयाबुद्धि से आहारादि देने में पुण्य ही होता है इस में एकान्त पाप कहना निरा मोह है । सकडालपुत्र और गोशाले का उदाहरण सर्वथा अप्रासंगिक है । सकडालपुत्र से गोशाला दया का पात्र होकर नहीं मिला था। बल्कि एक सम्प्रदाय का प्रवर्तक - नेता रूप से मिला था । उसका देना धर्म की दृष्टि से नहीं प्रत्युत गृहागत अतिथि का सत्कार करना गृहस्थ का कर्तव्य है इस दृष्टि से हुआ था । इसमें धर्म या तप का न होना स्वाभाविक है । धर्म सद्गुरु को सद्गुरु की बुद्धि से देने पर ही होता है, यह बात कौन नहीं मानेगा ? धर्म आत्मा से - कर्म की निर्जरा से सम्बन्ध रखता है और पुण्य शुभ कर्मों के आश्रव से । इस फर्क को जान लेने पर दयापात्रों को दया की बुद्धि से आहारादि दान के देने पर पुण्य होता है, ऐसा सुनने पर बहकना नहीं चाहिए । इस लेख के सारांश रूप में आनन्द का अभिग्रह इस रूप में था कि राजाभियोग से, गणाभियोग से, वलाभियोग से, देवाभियोग से, गुरु की आज्ञा से और वृत्तिकान्तार की परिस्थिति से भिन्न अवस्था में अन्य तीर्थिकां को गुरुबुद्धि से वंदन नमस्कार नहीं करूंगा, उनसे पहले आलाप - संलाप नहीं करूंगा, धर्मबुद्धि से अन्न - पानी भी नहीं ढुंगा । दया के बुद्धि से कोई निषेध नहीं । साथ ही अन्य तीर्थिकों के पात्रों को दया देवों को और (अनु० भाटे लुग्यो पानुं ५१० ) For Private And Personal Use Only

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