Book Title: Jain Satyaprakash 1937 04 SrNo 21
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 23
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - - - - - - - दिगम्बर शास्त्र कैसे बने? लेखक-मुनिराज श्री दर्शनविजयजी - - (गतांक से क्रमशः) प्रकरण १०-स्वामी समन्तभद्रसूरि सभी श्वेताम्बर पट्टावलियां इस विषय में एकमत हैं कि श्रमण भगवान् महावीरस्वामी की पाटपरंपरा में क्रमश: १३ श्री वज्रस्वामी (दूसरे भद्रबाहुस्वामी), १४ श्री वज्रसेन सूरि, १५ श्री चन्द्रसूरि, १६ श्री समन्तभद्रसूरि और १७ श्री वृद्धदेवसूरि हुए । श्री वृद्भदेवसूरि पूर्ववेदी थे, आप अधिकांश सपरिवार वन में हो रहते थे, अतः आपसे " वनवासी” गच्छ का प्रारम्भ हुआ । -(पट्टावली समुच्चय, पृ० ४८) इससे स्पष्ट होता है कि ---- स्वामी संमतभद्रजी चन्द्रसूरि, जिनसे चन्द्रकुल का प्रादुर्भाव हुआ है, उनके शिष्य थे । आप चन्द्र कुल के द्वितीय आचार्य और बनवासी गच्छ के आदि आचार्य थे । आपके शिष्य का नाम था देवसूरि और इसी देवसुरि के उपकार करने के लिए आपने देवागमस्तोत्र बनाया था। स्वामी समन्तभदजी की ग्रन्थसृष्टि इस प्रकार है:-- १-'आप्तमीमांसा' श्लोक-११४, यह “गन्धहस्ति महाभाष्य " नामक अनुपलब्ध ग्रन्थ का मंगलाचरण माना जाता है। महाभाष्य का निर्माण हुआ है या नहीं यह विचारणीय वस्तु है, किन्तु उपलब्ध आप्तमीमांसा अत्युत्तम ग्रन्थ है। 'आप्तमीमांसा' का दूसरा नाम है 'देवागम--स्तोत्र' सो ठीक है, क्यों कि उस ग्रन्थ का प्रारम्भ " देवागम" शब्द से होता है और मूरिजी के मुख्य शिष्य का नाम भी देवसूरि है। 'आप्तमीमांसा का निर्माग आ० देवसूरिजी के निमित्त हुआ है यह अर्थ संकलना भी युक्तियुक्त है। २-युक्त्यनुशासन' पद्य-६४ । ३- 'जिनस्तुतिशतक' (जिनशतकालंकार), पद्य ११६ । ४-'स्वयंभूस्तोत्र'-पद्य-१४३, इस (समन्तभद्र) स्तोत्र ग्रंथ में ३, ४, या ५ पद्यों से बने हुए २४ तीर्थंकरों के चैत्यवंदन ( स्तुतिरूप स्तोत्र ) हैं। और ५-रत्नकरंडक श्रावकाचार'--(रत्नकरंडक उपासकाध्यन ), इसमें श्रावक के व्रतों का दिग्दर्शन है । संभव है कि- यह ग्रन्थ दूसरे आ० समन्तभद्र या अन्य For Private And Personal Use Only

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