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दिगम्बर शास्त्र कैसे बनें ? भाग १ उत्पत्ति
लेखक:- पूज्य मुनि दर्शनविजयजी १ आगमप्रवाह
श्रमण भगवान महावीर वर्तमान अवसर्पिणी कालके अंतीम तीर्थकर है । आज आपका परमहितकारी - शासन प्रचलित है --विद्य मान है । / जीवरेन्द्र भगवान् महावीर स्वामीको मु ख्य ग्यारह शिष्य थे । वे सभी वि-छपा हुआख्यात एवं 'गणघर' पद से अलं
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कृत थे । इन अग्यारह गणधरोने गंभीर अर्थवाली उपन्ने इ वा विगमे इवा ओर धुवे इवा" त्रिपदीको पा कर
भीन्न भीन्न " द्वादशांगी” की रचना की । जो द्वादशांगीके दूसरे नांम जिना - गम ओर जिनवाणी है। पांचवा गण
समर्पणम् सच्चे दिगम्बर पं० अजितकुमार शास्त्रीजी ?
आपकी श्वेतांबर मत समीक्षा दृष्टिगोचर हुई । पर्याप्त पढने का सौभाग्य नहीं मीला । पत्र १७३ में बडे टाईपसे
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धर श्रीसुधर्मास्वामी चिरायु होने से ओर
१० गणधर उनसे पहिले मोक्षमें जा प
"श्वेताम्बरीय शास्त्र का निर्माण दिगम्बरीय शास्त्रो से हुआ है वांचते ही आपने श्वे०के आदि माने हुए दिगम्बर- शास्त्र पड़ने का दिल हो गया । ग्रंथ पड़ना शरु किया । बडा आनन्द मीला, आया । और जो " नवनीत " सो एकट्ठा करके श्रीमतां करपात्र में समर्पित करता हुं ।
आप इसको सहर्ष स्वीकार करें। विद्यमान है वे पांचवा गणधर श्रीसु
लेखक
धारे, जिनकी द्वादशांगी भी उनके निर्वाणके बादही वि
लुप्त हो गई. अत
एव श्रीसुधर्मास्वा
मीकी द्वादशांगी अवशिष्ट रही ।
आज जो जिनागम
आज राष्ट्रभाषा हिन्दी मानी जाती है, पंडितजीका समीक्षा - प्रन्थ भी हिन्दी में है । इसिसे यह लेख भी हीन्दी में लीखना समुचित माना है । जो न हीन्दी है, न हीन्दी भाषा के अभ्यासी है, न हीन्दी लेखक है । उसका उत्साह से लेख को हीन्दी साहित्यक समाज अपना ले, सुधार ले, एवं सत्य प्रारम्भसे ही आशा करता हुँ ।
हीन्दी में लीखा हुआ
वस्तुको स्वीकारें । एसी
-लेखक