________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
पास हुआ, ओर इसी समयमें दशवे श्रीगोविन्दवाचक, श्रीसंयमविष्णु, पूर्व के उत्तरार्धका विनाश हुआ। श्रीभूतदिन, श्रीलोहित्यसूरि, श्रीदुष्यग
श्री आर्यरक्षितजी, श्री नन्दीलक्ष्मण, णि और श्रीदेववाचकजी ११ अंग और श्रीनागहस्ति, १ श्रीरेवतिनक्षत्र, श्री- १ पूर्व से अधिक ज्ञान के धारक थे। सिंहसरिजी साढे नौं ओर उससे अल्प श्रीदेवद्धिंगणी क्षमाश्रमण और अल्प पूर्व के ज्ञानवाले थे। श्रीकालिकाचार्यजी ने माथुरा यांचना
श्री आर्यरक्षितसूरिजीने आगमो- एवं वल्लभी वांचना को मीला कर एक को च्यार अनुयोगमें विभक्त कीये । २ पाठ लीखा, इसि प्रकार वीरनिर्वाण
श्रीस्कंदिलाचार्य, श्रीहिमवंतक्षमा- सं. ९८० में श्रीदेवद्धिगणिक्षमाश्रमणने श्रमण, श्रीनागार्जुनसरि ये सभी सम- महाश्रमण सम्मेलन के सहकारसे आगम कालीन पूर्ववित थे।
और अन्यान्य शास्त्रग्रन्थ लीखे। ४ ___ शुरुमें स्कंदिलाचार्यने मथुरा में उसि समय श्रीकल्पसूत्रमें श्रीदेव
और नागार्जुनसूरिजीने वल्लभीशहरमें दिगणि क्षमाश्रमणकी गणधरवंश (पलामें) श्रमणसम्मेलन मीला कर आ- प्रशस्ति (गुरु परंपरा) और श्रीनंदीगमोंको पुस्तकरूपमें लीखे. (वीर सूत्रमें श्रीदेववाचकजी को वाचकवंश निर्वाण से नवमी शताब्दि के पूर्वार्ध प्रशस्ति (पूर्ववित् परंपरा, ज्ञानदात-गुरु काल में )३
परंपरा ) उल्लेखित की गइ, जो आज १ दिगम्बर ग्रन्थो में उल्लेख है कि-श्रीनागहस्तिसूरिके समय में पांच पूर्व से अधिक ज्ञान था ॥
श्रुतावतार । २ आगम के ४ अनुयोग दिगम्बर ग्रंथो में भी स्वीकृत है । क्यूं कि उसी समय तक श्वेताम्बर दिगम्बररूप संघभेद हुआ नहीं था ।
३ जिनवचनं च दुष्षमकालवशादुच्छिन्नप्रायमिति मत्वा भगवद्भिर्नागार्जुन-स्कंदिलाचार्य प्रभृतिभिः पुस्तकेषु न्यस्तम् ।
-क० स० श्रीहेमचंद्रसूरिकृत योगशास्त्रप्रकाश ३ श्लो. १२० पत्र २०७
४ श्वेताम्बर शास्त्रो में ' आगमका " स्वरूप बताया है कि " गणधर, खूद तीर्थंकर के शिष्य, प्रत्येक बुद्ध, चौदह पूर्वधारी, और कम से कम दश पूर्ववित् आचार्य की रचना आगम है " जो स्वरूप दिगंबर शास्त्रो को भी मान्य है। देखियेमूलाचार परिच्छेद ५ पंचाचाराधिकार गाथा ८० ॥
For Private And Personal Use Only