Book Title: Jain Sahitya ki Pragati Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 5
________________ शास्त्रीय भाषाओं का अभ्यास ४ऍड संशोधनक्षेत्र में भारतीयों की अपेक्षा ऊँचा स्थान रखते हैं। इसका कारण क्या है इस पर हमें यथार्थ विचार करना चाहिए । पाश्चात्य विश्वविद्यालय का पाठ्यक्रम सत्यशोधक वैज्ञानिक दृष्टि के आधार पर रखा जाता है। इससे वहाँ के विद्वान् सर्वांगीण दृष्टि से भाषाओं तथा इतर विषयों का अध्ययन करते कराते हैं । वे हमारे देश की रूढ़प्रथा के अनुसार केवल सांप्रदायिक व संकुचित दायरे में बद्ध होकर न तो भाषाओं का एकांगी अध्ययन करते हैं और न इतर विषयों का ही । तब वे कार्यकाल में किसी एक ही क्षेत्र को क्यों न अपनाएँ पर उनकी दृष्टि व कार्यपद्धति सर्वांगीण होती है । वे अपने संशोधन क्षेत्र में सत्यलक्षी ही रह कर प्रयत्न करते हैं । हम भारतीय संस्कृति की अखण्डता व महत्ता की डींग हाँके और हमारा अध्ययन-अध्यापन व संशोधन विषयक दृष्टिकोण खंडित व एकांगी हो तो सचमुच हम अपने आप ही अपनी संस्कृति को खंडित व विकृत कर रहे हैं | 1 एम० ए०, डॉक्टरेट जैसी उच्च उपाधि लेकर संस्कृत साहित्य पढ़ाने वाले अनेक अध्यापकों को आप देखेंगे कि वे पुराने एकांगी पंडितों की तरह ही प्राकृत का न तो सीधा अर्थ कर सकते हैं, न उसकी शुद्धि शुद्धि पहचानते हैं, और न छाया के सिवाय प्राकृत का अर्थ भी समझ सकते हैं । यही दशा प्राकृत के उच्च उपाधिधारकों की हैं । वे पाठ्यक्रम में नियत प्राकृतसाहित्य को पढ़ाते हैं तत्र अधिकांश में अंग्रेजी भाषान्तर का आश्रय लेते हैं, या अपेक्षित व पूरक संस्कृत ज्ञान के अभाव के कारण किसी तरह कक्षा की गाड़ी खींचते हैं। इससे भी अधिक दुर्दशा तो 'एन्श्यन्ट इन्डियन हिस्ट्री एन्ड कल्चर' के क्षेत्र में कार्य करने वालों की है। इस क्षेत्र में काम करनेवाले अधिकांश अध्यापक भी प्राकृत-शिलालेख, सिक्के आदि पुरातत्त्वीय सामग्री का उपयोग अंग्रेजी भाषान्तर द्वारा ही करते हैं ! वे सीधे तौर से प्राकृत भाषाओं के न तो मर्म को पकड़ते हैं और न उन्हें यथावत् पढ़ ही पाते हैं । इसी तरह वे संस्कृत भाषा के आवश्यक बोध से भी वंचित होने के कारण अंग्रेजी भाषान्तर पर निर्भर रहते हैं । यह कितने दुःख व लजा की बात हैं कि पाश्चात्य संशोधक विद्वान् अपने इस विषय के संशोधन व प्रकाशन के लिए अपेक्षित सभी भाषत्रों का प्रामाणिक ज्ञान प्राप्त करने की पूरी चेष्टा करते हैं तब हम भारतीय घर की निजी सुलभ सामग्री का भी पूरा उपयोग नहीं कर पाते । इस स्थिति में तत्काल परिवर्तन करने की दृष्टि से अखिल भारतीय प्राच्य विद्वत्परिषद् को विचार करना चाहिए। मेरी राय में उसका कर्तव्य इस विषय में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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