Book Title: Jain Sahitya ki Pragati
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 9
________________ नये प्रकाशन भी मैं यहाँ उचित समझता हूँ । आचार्य मल्लवादी ने विक्रम छठी शताब्दी में 'नयचक्र' ग्रन्थ लिखा है । उसके मूल की कोई प्रति लब्ध नहीं है। सिर्फ उसकी सिंहगणि-क्षमाश्रमण कृत टीका की प्रति उपलब्ध होती है। टीका की भी जितनी प्रतियाँ उपलब्ध हैं वे प्रायः अशुद्ध ही मिली हैं। इस प्रकार मूल और टीका दोनों का उद्धार अपेक्षित है। उक्त टीका में वैदिक, बौद्ध और जैन ग्रन्थों के अवतरण विपुल मात्रा में हैं । किन्तु उनमें से बहुत ग्रन्थ अप्राप्य हैं। सद्भाग्य से बौद्ध ग्रंथों का तिब्बती और चीनी भाषान्तर उपलब्ध है । जब तक इन भाषान्तरों की सहायता न ली जाए तब तक यह ग्रन्थ शुद्ध हो ही नहीं सकता, यह उस ग्रन्थ के बड़ौदा गायकवाड़ सिरीज़ से प्रकाशित होनेवाले और श्री लब्धिसूरि अन्य माला से प्रकाशित हुए संस्करणों के अवलोकन से स्पष्ट हो गया है। इस वस्तुस्थिति का विचार करके मुनि श्री जम्बूविजय जी ने इसी ग्रन्थ के उद्धार निमित्त तिब्बती भाषा सीखी है और उक्त ग्रन्थ में उपयुक्त बौद्ध ग्रन्थों के मूल अवतरण खोज निकालने का कार्य प्रारम्भ किया है। मेरी राय में प्रामाणिक संशोधन की दृष्टि से मुनि श्री जम्बूविजय जी का कार्य विशेष मुल्य रखता है। आशा है वह ग्रन्थ थोड़े ही समय में अनेक नए ज्ञातव्य तथ्यों के साथ प्रकाश में आएगा। उल्लेख योग्य प्रकाशन कार्य पिछले वर्षों में जो उपयोगी साहित्य प्रकाशित हुआ है किन्तु जिनका निर्देश इस विभागीय प्रमुख के द्वारा नहीं हुआ है, तथा जो पुस्तकें अभी प्रकाशित नहीं हुई हैं पर शीघ्र ही प्रकाशित होने वाली है उन सबका नहीं परन्तु उनमें से चुनी हुई पुस्तकों का नाम निर्देश अन्त में मैंने परिशिष्ट में ही करना उचित समझा है। यहाँ तो मैं उनमें से कुछ ग्रन्थों के बारे में अपना विचार प्रकट करूँगा। ___जीवराज जैन ग्रन्थमाला, शोलापुर द्वारा प्रकाशित दो ग्रंथ खास महत्त्व के हैं। पहला है 'यशस्तिलक एण्ड इन्डियन् कल्चर'। इसके लेखक हैं प्रोफेसर के० के० हाण्डीकी । श्री हाण्डीकी ने ऐसे संस्कृत ग्रन्थों का किस प्रकार अध्ययन किया जा सकता है उसका एक रास्ता बताया है। यशस्तिलक के आधार पर तत्कालीन भारतीय संस्कृति के सामाजिक, धार्मिक, दार्शनिक श्रादि पहलुओं से संस्कृति का चित्र खींचा है। लेखक का यह कार्य बहुत समय तक बहुतों को नई प्रेरणा देने वाला है। दूसरा ग्रन्थ है 'तिलोयपएणत्ति' द्वितीय भाग। इसके संपादक हैं ख्यातनामा प्रो० हीरालाल जैन और प्रो० ए. एन. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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