Book Title: Jain Sahitya ki Pragati
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 17
________________ निश्चय और व्यवहार E एक दूसरे पर असर डालने की शक्ति भी धारण करते हैं। चेतन का संकोच विस्तार यह द्रव्य-क्षेत्र - काल आदि सापेक्ष होने से व्यवहारदृष्टि सिद्ध है | चेतन पुद्गल का परमाणुरूपत्व या एक प्रदेशावगाह्यत्व यह निश्चयदृष्टि का विषय है, जब कि उसका स्कन्धपरिणमन या अपने क्षेत्र में अन्य अनन्त परमाणु और स्कन्धों को अवकाश देना यह व्यवहारदृष्टि का निरूपण है । परन्तु श्राचारलक्षी निश्चय और व्यवहार दृष्टि का निरूपण जुदे प्रकार से होता है । जैनदर्शन मोक्ष को परम पुरुषार्थ मानकर उसी की दृष्टि से आचार की व्यवस्था करता है । अतएव जो चार सीधे तौर से मोक्षलक्षी है वही नैश्चयिक आचार है इस आचार में दृष्टिभ्रम और कषायिक वृत्तियों के निर्मूलीकरण मात्र का समावेश होता है । पर व्यावहारिक आचार ऐसा एकरूप नहीं । नैश्चयिक आचार की भूमिका से निष्पन ऐसे भिन्न-भिन्न देश काल-जाति-स्वभाव-रुचि आदि के अनुसार कभीकभी परस्पर विरुद्ध दिखाई देने वाले भी चार व्यावहारिक चार कोटि में गिने जाते हैं । नैश्चयिक श्राचार की भूमिका पर वर्तमान एक ही व्यक्ति अनेकविध व्यावहारिक आचारों में से गुजरता है । इस तरह हम देखते हैं कि आचारगामी नैश्चयिक दृष्टि या व्यावहारिक दृष्टि मुख्यतया मोक्ष पुरुषार्थ की दृष्टि से ही विचार करती है । जब कि तत्त्वनिरूपक निश्चय या व्यवहार दृष्टि केवल जगत के स्वरूप को लक्ष्य में रखकर ही प्रवृत्त होती है । तत्त्वज्ञान और आचार लक्षी उक्त दोनों नयों में एक दूसरा भी महत्त्व का अन्तर है, जो ध्यान देने योग्य है । नैश्वविक दृष्टि सम्मत तत्वों का स्वरूप हम सभी साधारण जिज्ञासु कभी प्रत्यक्ष कर नहीं पाते। हम ऐसे किसी व्यक्ति के कथन पर श्रद्धा रखकर ही वैसा स्वरूप मानते हैं कि जिस व्यक्ति ने तत्त्वस्वरूप का साक्षात्कार किया हो । पर आचार के बारे में ऐसा नहीं है । कोई भी जागरूक साधक अपनी श्रान्तरिक सत्-असत् वृत्तियों को व उनकी तीव्रता मन्दता के तारतम्य को सीधा अधिक प्रत्यक्ष जान सकता है जब कि अन्य व्यक्ति के लिए पहले सर्वथा परोक्ष हैं । नैश्चयिक हो या व्यावहारिक, तत्त्वज्ञान का दर्शन के सभी अनुयायियों के लिए एक सा है तथा समान परिभाषाबद्ध है । स्वरूप ऐसा नहीं । हरएक व्यक्ति का व्यक्ति की वृत्तियाँ स्वरूप उस-उस पर नैश्चयिक व व्यावहारिक आचार का नैश्व िचार उसके लिए प्रत्यक्ष है । इस अल्प विवेन्वन से मैं केवल इतना ही सूचित करना चाहता हूँ कि निश्चय और व्यवहार नय ये दो शब्द भले ही समान हों। पर तत्त्वज्ञान और आचार के क्षेत्र में भिन्न-भिन्न अभिप्राय से लागू होते हैं, और हमें विभिन्न परिणामों पर पहुँचाते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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