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जैन धर्म और दर्शन निश्चयदृष्टि से जैन तत्त्वज्ञान की भूमिका औपनिषद् तत्त्वज्ञान से बिलकुल भिन्न हैं। प्राचीन माने जाने वाले सभी उपनिषद् सत्, असत्, आत्मा, ब्रह्म, अव्यक्त, आकाश, आदि भिन्न-भिन्न नामों से जगत के मूल का निरूपण करते हुए केवल एक ही निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि जगत् जड़-चेतन आदि रूप में कैसा ही नानारूप क्यों न हो, पर उसके मूल में असली तत्त्व तो केवल एक ही है । जब कि जैनदर्शन जगत् के मूल में किसी एक ही तत्व का स्वीकार नहीं करता, प्रत्युत परस्पर विजातीय ऐसे स्वतन्त्र दो तत्वों का स्वीकार करके उसके
आधार पर विश्व के वैश्वरूप्य की व्यवस्था करता है। चौबीस तत्त्व मानने वाले सांख्य दर्शन को और शांकर आदि वेदान्त शाखाओं को छोड़ कर-भारतीय दर्शनों में ऐसा कोई दर्शन नहीं जो जगत के मूलरूप से केवल एक तत्त्व स्वीकार करता हो । न्याय-वैशेषिक हो या सांख्य-योग हो, या पूर्व मीमांसा हो सभ अपने-अपने ढंग से जगत् के मूल में अनेक तत्त्वों का स्वीकार करते हैं । इससे स्पष्ट है कि जैन तत्त्वचिन्तन की प्रकृति औपनिषद् तत्त्वचिन्तन की प्रकृति से सर्वथा भिन्न है । ऐसा होते हुए भी जब डॉ० रानडे जैसे सूक्ष्म तत्त्वचिन्तक उपनिषदों में जैन तत्त्वचिन्तन का उद्गम दिखाते हैं तब विचार करने से ऐसा मालूम होता है कि यह केवल उपनिषद भक्ति की आत्यन्तिकता है।' इस तरह उन्होंने जो बौद्धदर्शन या न्याय-वैशेषिक दर्शन का संबन्ध उपनिषदों से जोड़ा है वह भी मेरी राय में भ्रान्त है। इस विषय में मेक्समूलर २ और डॉ. ध्रुव आदि की दृष्टि जैसी स्पष्ट है वैसी बहुत कम भारतीय विद्वानों की होगी। डॉ. रानडे की अपेक्षा प्रो० हरियन्ना व डॉ० एस० एन० दासगुप्त का निरूपण मूल्यवान है । जान पड़ता है कि उन्होंने अन्यान्य दर्शनों के मूलग्रन्थों को विशेष सहानुभूति व गहराई से पढ़ा है। अनेकान्तवाद 3
हम सभी जानते हैं कि बुद्ध अपने को विभज्यवादी ४ कहते हैं। जैन आगमों में महावीर को भी विभज्यवादी सूचित किया है । ५ विभज्यवाद का मतलब पृथक्करण पूर्वक सत्य-असत्य का निरूपण व सत्यों का यथावत् समन्वय करना
१. कन्स्ट्रक्टिव सर्वे ऑफ उपनिषदिक फिलॉसॉफी पृ० १७६ २. दि सिक्स सिस्टम्स ऑफ इण्डियन फिलॉसॉफी ३. प्रमाणमीमांसा भाषाटिप्पण पृ०६१ ४. मज्झिमनिकाय सुत्त ६६ ५. सूत्रकृतांग १. १४. २२.
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