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नए प्रकाशन साथ ही बढ़ती रही है । ऐसी हालत में जैनदर्शन के अभ्यासी एवं संशोधकों का कर्तव्य हो जाता है कि वे आधुनिक विशाल ज्ञान सामग्री का उपयोग करें और नय विचार का क्षेत्र सर्वांगीण यथार्थ अध्ययन से विस्तृत करें, केवल एकदेशीयता से संतुष्ट न रहें।
नैगम' शब्द की 'नक+गम,' नैग अनेक )+म तथा 'निगमे भवः' जैसी तीन व्युत्पत्तियाँ नियुक्ति आदि ग्रन्थों में पाई जाती हैं।' पर वस्तुस्थिति के साथ मिलान करने से जान पड़ता है कि तीसरी व्युत्पत्ति ही विशेष ग्राह्य है, उसके अनुसार अर्थ होता है कि जो विचार या व्यवहार निगम में व्यापार व्यवसाय करनेवाले महाजनों के स्थान में होता है वह नैगम । जैसे महाजनों के व्यवहार में भिन्न-भिन्न मतों का समावेश होता है, वैसे ही इस नय में भिन्नभिन्न तात्विक मन्तव्यों का समावेश विवक्षित है । पहली दो व्युत्पत्तियों वैसी ही कल्पना प्रसूत हैं, जैसी कि 'इन्द्र' की 'इंद्रातीति इन्द्रः यह माठरवृत्ति गत व्युत्पत्ति है।
सप्तभंगी गत सात मंगों में शुरू के चार ही महत्त्व के हैं क्योंकि वेद, उपनिषद् आदि ग्रन्थों में तथा 'दीघनिकाय' के ब्रह्मजाल सूत्र में ऐसे चार ' विकल्प छूटे-छटे रूप में या एक साथ निर्दिष्ट पाये जाते हैं। सात भंगों में
जो पिछले तीन भंग है उनका निर्देश किसी के पक्षरूप में कहीं देखने में नहीं आया। इससे शुरू के चार भंग ही अपनी ऐतिहासिक भूमिका रखते हैं ऐसा फलित होता है।
शुरू के चार भंगों में एक 'अवक्तव्य' नाम का भंग भी है। उसके अर्थ के बारे में कुछ विचारणीय बात है। आगम युग के प्रारम्भ से अवक्तव्य भंग का अर्थ ऐसा किया जाता है कि सत् असत् या नित्य-अनित्य आदि दो अंशों को एक साथ प्रतिपादन करनेवाला कोई शब्द ही नहीं, अतएव ऐसे प्रतिपादन की विवक्षा होने पर वस्तु अवक्तव्य है। परन्तु अवक्तव्य शब्द के इतिहास को देखते हुए कहना पड़ता है कि उसकी दूसरी ब ऐतिहासिक व्याख्या पुराने शास्त्रों में है।
उपनिषदों में 'यतो वाचो निवर्तन्ते, अप्राप्य मनसा सह'' इस उक्ति के द्वारा ब्रह्म के स्वरूप को अनिर्वचनीय अथवा वचनागोचर सूचित किया है । इसी
१. आवश्यक नियुक्ति गा०७५५, तत्त्वार्थभाष्य १.३५; स्थानांगटीका स्था०७ २. भगवती शतक १. उद्देशा १० ३. तैत्तिरीय उपनिषद् २ ४. ।
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