Book Title: Jain Sahitya ki Pragati
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 19
________________ अनेकान्तवाद ५०१ है । विभज्यवाद के गर्भ में ही किसी भी एकान्त का परित्याग सूचित है । एक लम्बी वस्तु के दो छोर ही उसके दो श्रन्त हैं । अन्तों का स्थान निश्चित है । पर उन दो अन्तों के बीच का अन्तर या बीच का विस्तार — अन्तों की तरह स्थिर नहीं । अतएव दोन्तों का परित्याग करके बीच के मार्ग पर चलने वाले सभी एक जैसे हो ही नहीं सकते यही कारण है कि विभज्यवादी होने पर भी बुद्ध और महावीर की दृष्टि में कई बातों में बहुत अन्तर रहा है । एक व्यक्ति श्रमुक विवक्षा से मध्यममार्ग या विभज्यवाद घटाता है तो दूसरा व्यक्ति अन्य विवक्षा से घटाता है । पर हमें ध्यान रखना चाहिए कि ऐसी भिन्नता होते हुए भी बौद्ध और जैनदर्शन की आत्मा तो विभज्यवाद ही है । विभज्यवाद का ही दूसरा नाम अनेकान्त है, क्योंकि विभज्यवाद में एकान्तदृष्टिकोण का त्याग है । बौद्ध परम्परा में विभज्यवाद के स्थान में मध्यम मार्ग शब्द विशेष रूढ़ है । हमने ऊपर देखा कि अन्तों का परित्याग करने पर भी कान्त के अवलम्बन में भिन्न-भिन्न विचारकों का भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण सम्भव है । अतएव हम न्याय, सांख्य-योग और मीमांसक जैसे दर्शनों में भी विभज्यवाद तथा अनेकान्त शब्द के व्यवहार से निरूपण पाते हैं । अक्षपाद कृत 'न्यायसूत्र ' के प्रसिद्ध भाष्यकार वात्स्यायन ने २-१-१५, १६ के भाष्य में जो निरूपण किया है वह अनेकान्त का स्पष्ट द्योतक है और 'यथा दर्शनं विभागवचनं' कहकर तो उन्होंने विभज्यवाद के भाव को ही ध्वनित किया है । हम सांख्यदर्शन की सारी तत्वचिन्तन प्रक्रिया को ध्यान से देखेंगे तो मालूम पड़ेगा कि वह अनेकान्त दृष्टि से निरूपित है । 'योगदर्शन' के ३-१३ सूत्र के भाष्य तथा तत्त्ववैशारदी विवरण को ध्यान से पढ़ने वाला सांख्य योग दर्शन की अनेकान्त दृष्टि को यथावत् समझ सकता है । कुमारिल ने भी ' श्लोक वार्तिक और अन्यत्र अपनी तत्त्वव्यवस्था में अनेकान्तदृष्टि का उपयोग किया है, ' उपनिषदों के समान आधार पर केवलाद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत, शुद्धाद्वैत आदि जो अनेक वाद स्थापित हुए हैं वे वस्तुतः अनेकान्त विचार सरणी के भिन्न-भिन्न प्रकार हैं । तत्त्वचिन्तन की बात छोड़कर हम मानवयूथों के जुदे जुदे आचार व्यवहारों पर ध्यान देंगे तो भी उनमें अनेकान्त दृष्टि पायेंगे । वस्तुतः जीवन का स्वरूप ही ऐसा है कि जो एकान्तदृष्टि में पूरा प्रकट हो ही नहीं सकता । मानवीय व्यवहार भी ऐसा है कि जो अनेकान्त दृष्टि का अन्तिम अवलम्बन बिना लिये निभ नहीं सकता । इस संक्षिप्त प्रतिपादन से केवल इतना ही सूचित करना है कि हम संशोधक अभ्या १. श्लोक वार्तिक, श्रात्मवाद २६-३० श्रादि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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