Book Title: Jain Sahitya ki Pragati
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 24
________________ __ जैन धर्म और दर्शन अपभ्रंश भाषा के साहित्य के विशेष प्रकाशनों की आवश्यकता पर पहले के प्रमुखों ने कहा है, परन्तु उसके उच्चतर अध्ययन का विशिष्ट प्रबन्ध होना अत्यन्त जरूरी है। इसके सिवाय गुजराती, राजस्थानी, हिन्दी, मराठी, बंगाली आदि भाषाओं के कड़ीबंध इतिहास लेखन का कार्य संभव ही नहीं। इसी तरह उच्च शिक्षा के लिए प्रांतीय भाषाओं को माध्यम बनाने का जो विचार चारों श्रोर विकसित हो रहा है, उसकी पूरी सफलता तभी संभव है जब उक्त भाषाओं की शब्द समृद्धि व विविध अर्थों को वहन करने की क्षमता बढ़ाई जाय । इस कार्य में अपभ्रंश भाषाओं का अध्ययन अनिवार्य रूप से अपेक्षित है। प्राकृत विशेष नामों के कोष की उपयोगिता तथा जैन पारिभाषिक शब्द कोष की उपयोगिता के बारे में अतः पूर्व कहा गया है। मैं इस विषय में अधिक चर्चा न करके एक ऐसा सूचन करता हूँ जो मेरी राय में श्राज की स्थिति में सबसे प्रथम कर्तव्य है और जिसके द्वारा नए युग की माँग को हम लोग विशेष सरलता व एक सुचारु पद्धति से पूरा कर सकेंगे। वह सूचन यह है-- नवयुगीन साहित्यिक मर्यादानों को समझने वालों की तथा उनमें रस लेने वालों की संख्या अनेक प्रकार से बढ़ रही है । नव शिक्षा प्राप्त अध्यापक विद्यार्थी आदि तो मिलते ही हैं, पर पुराने ढंग से पढ़े हुए पण्डितों व ब्रह्मचारी एवं भिक्षुओं की काफी तादाद भी इस नए युग का अल जानने लगी है । व्यवसायी. पर विद्याप्रिय धनवानों का ध्यान भी इस ओर गया है । जुदे-जुदे जैन फिरकों में ऐसी छोटी बड़ी संस्थाएँ भी चल रही हैं तथा निकलती जा रही हैं जो नए युग की साहित्यिक आवश्यकता को थोड़ा बहुत पहचानती हैं और योग्य मार्गदर्शन मिलने पर विशेष विकास करने की उदारवृत्ति भी धारण करती हैं। यह सब सामग्री मामूली नहीं है, फिर भी हम जो काम जितनी त्वरा से और जितनी पूर्णता से करना चाहते हैं वह हो नहीं पाता । कारण एक ही है कि उक्त सब सामग्री बिखरी हुई कड़ियों की तरह एकसूत्रता विहीन है । हम सब जानते हैं कि पार्श्वनाथ और महावीर के तीर्थ का जो और जैसा कुछ अस्तित्व शेष है उसका कारण केवल संघ रचना व संघ व्यवस्था है। यह वस्तु हमें हजारों वर्ष से अनायास विरासत में मिली है, गाँव-गाँव, शहर-शहर में जहाँ भी जैन हैं, अपने उनका ढंग का संघ है ।। हर एक फिरके के साधु-जति-भट्टारकों का भी संघ है। उस उस फिरके के तीर्थ-मन्दिर-धर्मस्थान भण्डार आदि विशेष हितों की रक्षा तथा वृद्धि करने वाली कमेटियाँ-पेदियों व कान्फरेन्सें तथा परिषदें भी हैं। यह सब संघशक्ति का ही निदर्शन है। जब इतनी बड़ी संघ शक्ति है तब क्या कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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