Book Title: Jain Sahitya ki Pragati
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 8
________________ ४६० जैन धर्म और दर्शन ई० १९५० के प्रारंभ में पहुँच गए । जैसलमेर में जाकर शास्त्रोद्धार और भंडारों का उद्धार करने के लिए उन्होंने जो किया है उसका वर्णन यहाँ करना संभव नहीं । मैंने अपने व्याख्यान के अंत में उसे परिशिष्ट रूप से जोड़ दिया है। __उस सामग्री का महत्त्व अनेक दृष्टि से है । 'विशेषावश्यक भाष्य', 'कुकलयमाला', 'श्रोधनियुक्ति वृत्ति' आदि अनेक ताड़पत्रीय और कागजी ग्रन्थ ६००. वर्ष तक के पुराने और शुद्धप्रायः हैं। इसमें जैन परंपरा के उपरान्त बौद्ध और ब्राह्मण परम्परा की भी अनेक महत्त्वपूर्ण पोथियाँ हैं। जिनका विषय काव्य, नाटक, अलंकार, दर्शन प्रादि है। जैसे– 'खण्डन-खण्ड-खाद्यशिष्यहितैषिणी वृत्ति--टिप्पण्यादि से युक्त, न्यायमंजरी-ग्रन्थिभंग', 'भाष्यवार्तिक-विवरण', पंजिकासह 'तत्त्वसंग्रह' इत्यादि। कुछ ग्रंथ तो ऐसे हैं जो अपूर्व है-जैसे 'न्यायटिप्पणक'-श्रीकंठीय, 'कल्पलताविवेक ( कल्पपल्लवशेष), बौद्धाचार्यकृत धर्मोत्तरीय टिप्पण' आदि । सोलह मास जितने कम समय में मुनि श्री ने रात और दिन, गरमी और सरदी का जरा भी ख्याल बिना किए जैसलमेर दुर्ग के दुर्गम स्थान के भंडार के अनेकांगी जीणोद्धार के विशालतम कार्य के वास्ते जो उग्र तपस्या की है उसे दूर बैठे शायद ही कोई पूरे तौर से समझ सके । जैसेलमेर के निवास दरमियान मुनि श्री के काम को देखने तथा अपनी अपनी अभिप्रेत साहित्यिक कृतित्रों की प्राप्ति के निमित्त इस देश के अनेक विद्वान् तो वहाँ गए ही पर विदेशी विद्वान् भी वहाँ गए । हेम्बर्ग यनिवर्सिटी के प्रसिद्ध प्राच्यविद्याविशारद डॉ० अाल्मडोर्फ भी उनके कार्य से आकृष्ट होकर वहाँ गए और उन्होंने वहाँ की प्राच्य वस्तु व प्राच्य साहित्य के सैकड़ों फोटो भी लिए । मुनि श्री के इस कार्य में उनके चिरकालीन अनेक साथियों और कर्मचारियों ने जिस प्रेम व निरीहता से सतत कार्य किया है और जैन संघ ने जिस उदारता से इस कार्य में यथेष्ट सहायता की है वह सराहनीय होने के साथ साथ मुनि श्री की साधुता, सहृदयता व शक्ति का द्योतक है । मुनि श्री पुण्यविजय जी का अभी तक का काम न केवल जैन परम्परा से संबन्ध रखता है और न केवल भारतीय संस्कृति से ही संबन्ध रखता है, बल्कि मानव संस्कृति की दृष्टि से भी वह उपयोगी है। जब मैं यह सोचता हूँ कि उनका यह कार्य अनेक संशोधक विद्वानों के लिए अनेकमुखी सामग्री प्रस्तुत करता है और अनेक विद्वानों के श्रम को बचाता है तब उनके प्रति कृतज्ञता से हृदय भर आता है। संशोधनरसिक विद्वानों के लिए स्फूर्तिदायक एक अन्य प्रवृत्ति का उल्लेख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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