Book Title: Jain Prajamat Dipika
Author(s): All India Young Mans Jain Society Sammelan
Publisher: All India Young Mans Jain Society Sammelan

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Page 408
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૩૯૧ लोगोम अ उवघाओ भोगाभावा ण चाइ य ९|| एयपि न जुत्तिखमं विण्णेअं मुद्धविम्हयकरं तु । अविवेगपरिच्चाया चाई जं निच्छयनयस्स ॥९४१ संसारहेउमओ पवत्तगो एस पावपक्खंमिा एभूमि अपरिचित्ते किं कीरइ बज्झचाएणं ? ॥९५|| पालेइ साहुकिरिअं सो सम्मं तंभि चेव चत्तंभि । तब्मामि अ विहलो इअरस्स कओऽवि चाओत्ति ॥९६॥ दीसंति अ केइ इदं सइ तंमी बज्झचायजुत्ताऽवि । तुच्छपवित्ती अफलं दुहावि जीवं करेमाणा ॥९७। चइऊण घरावासं आरंभ परिग्गहेसु वति । जं सन्नाभेएणं एअं अविवेगसामत्थं ।।९८।। मसनिवित्ति का सेवइ दतिक्कयंति धणिभेआ। इअ चइऊणारंभं परववएसा कुणइ वालो ॥९९।। पयइए सावनं संतं जं सबहा विरुद्धं तु। धणिभेमिवि महुरगसी अलिगा इब्न लगोम्मि ॥१००। ता कीस अणुमभो सो उवएसाइंभि कूबनाएणं ? । गिहिजोगो उ जइस्स उ साविक्खस्सा परठाए ॥१०१॥ अण्णाभावे जयणाए मग्गणासो हविज मा तेणं । पुबकयाययणाइसु ईसिं गुण संभवे इहरा ॥१०२॥ चेइअकुलगुणसंधे आयरिआणं च पश्यणसुए अ। सव्वेमुवि तेण कयं तवसंजमज्जमतेण ॥१०३॥ एत्थ यऽविवेगचागा पवत्तई जेण ता तओ पवरो। तस्सेव फलं एसो जो सम्म बज्ज्ञझचाउत्ति ॥१०४॥ ता थेवमिअं कज्नं सपणाइजुओ नवत्ति सइ तम्मि । एत्तो चेव य दोसा ण हूंति सेसा धुवं तस्स ॥१०॥ For Private and Personal Use Only

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