Book Title: Jain Prachin Stavanadi Sangraha
Author(s): Ujamshi Thakarshibhai Ahmedabad
Publisher: Ujamshi Thakarshibhai Ahmedabad
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૩૮૯
॥ एकादशी स्तुति ॥
॥शिखरिणी छन्दः॥ अरस्य प्रवज्या नमिजिन पतेर्जान मतुलं । तथा मल्लेर्जन्म व्रतमपमलं केवलमलम् ॥ वलक्षकादश्यां सहशिल सदुद्दाममहसि । क्षिती कल्याणानां क्षपतु विपदः पंचकमदा ॥ १ ॥ सुपर्बेन्द्र श्रेण्या गमन गमनैर्भुमिवलयं । सदा स्वर्गत्येवाहमह मिकया यत्र सलयं ।। जिनानामव्यापुः क्षणमति सुखं नारकसदक्षितौ ॥ २॥ जिना एवं यानि पणिजग दुरात्मीय समये । फलं यकतगामिति च विदितं शुद्ध समये ॥ अरिष्टारिष्टानां क्षितिरनुभवेयु बहुमुदः । सिता० ॥ ३ ॥ मुराः सेन्द्राः सर्वे सकलनिन चन्द्र प्रमुदिता । तथा च ज्योतिष्का खिलभुवन नाथा समुदिता ॥ तपो यत्करणा विदधति मुख विस्मृत हृदः ॥ क्षिती० ॥ ४ ॥
॥ एकादशी स्तुति ॥
॥ शार्दूलविक्रीडितम् ॥ श्रीभाग नेमिर्वभाषे जलशय सविधे स्फुतिमेकादशीयां । माधमोहावनिद्र प्रशमन विशिखः पंचबाणाचिरण: ॥ मिथ्यात्व. द्वान्त वान्ता रविकरनिफरस्तीत्र लोभाद्रि वनं । श्रेयस्तत्पर्य का स्ताच्छिव सुखमिति वा सुव्रत श्रेष्ठिनोऽभूत ॥१॥ इन्द्रैरभ्रभ्रमद्भिर्मुनि पगुणरसा स्वादनानन्द पूर्ण। दीव्यद्भिः स्फारहारै. ललित वर
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