Book Title: Jain Prachin Stavanadi Sangraha
Author(s): Ujamshi Thakarshibhai Ahmedabad
Publisher: Ujamshi Thakarshibhai Ahmedabad
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२८७.
पाप करंता राख्या जी ॥ १ ॥ मृगनयणी सुंदरी सूकुमाली, वचन बद्दे टंकशालीला । पूरों पनाता मनोरथ माहरा, निरुपम का निहालोजी । विविध जाति पक्वान्न करोने, संघ सयल संतोषोनी । चोवीशे जिनवर पूजीने, पुण्य खजानो पोषोजी ॥२॥ सकल सूत्र शिर मुकुट नगोनो, कलामूत्र जग जाणोजी । वीर पास नेमोसर अंतर, आदि चरित्र बखाणोजी ॥ स्थविरावलीने सामाचारी, पट्टावली गुणगेहजो । एम ए सूत्र सविस्तर मुणोने, सफल करो नर देहनी ॥ ३ ॥ इणोपरे पर्व पजूसण पाली, पाप सर्व परिहयेजी । संवत्सरो पडिकमणुं करतां, कल्याण कमला बरोयेजो । गोमुख यक्ष चक केसरो देवो, श्री माणोभद्र अंबाइनी । शुभविजय कविशिष्य अमरने, दिन दिन करो बधाइजी ॥४॥
॥ श्री पर्युषण स्तुति ॥ पर्व पजुसण सर्व मनाइ, मेलवाने आराघोजी । दानशील तप भावने भेली, सफ करा भव लाधोजी ॥ तत्क्षण एह पर्वथो वरी. ये, भवजल जेह अगाधोजी । बीरने वांदी अधिक आणंदो. पूनी पुण्ये वाघोजी ॥ १ ॥ ऋषभ नेम श्रोपास परमेसर, वीर निणेसर केरांनी । पांच कल्याणक प्रेमे सुणीये, वली आंतरा अनेरा. जी । वीशे जिनवरना जे वारू, टाले भवना फेराजी ॥ अतीत नागत जिनने नमीये, वलो विशेष भलेरानी ।। २ ॥ दशा श्रम
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