Book Title: Jain Prachin Stavanadi Sangraha
Author(s): Ujamshi Thakarshibhai Ahmedabad
Publisher: Ujamshi Thakarshibhai Ahmedabad

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Page 417
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૪૨૪ ॥ अथ श्रीमल्लि जिन चैत्यवन्दन ॥ ( गेयपद्धतिराग ) कुम्भसमुद्भव संमदाकर । गुणवर हे मल्लिजिनोत्तम देव जय जय विश्वपते || १ || कृत्याकुत्यविवेकिता जिन समुचिता । हे त्वयि जागर्ति जिनेश जय जय विपते ॥ २ ॥ नित्यान्दप्रकाशिका भ्रमनाशिका | हे तत्र शुभदृष्टि रतीश जय जय विश्वपते ॥ ३ ॥ शुद्धिनिवन्धनसन्निवे सद्गुणनिधे हे वर्जित सर्वविकार जय जय विश्वपते || ४ || निजनिरुपाधिक संपदा शोभित सदा निर्मल धुरीण जय जय विश्वपते ॥ ५ ॥ ॥ अथ श्रीमुनिसुव्रत जिन चैत्यवंदन ॥ || अन्ययपध्यतिरागः ॥ I ॥ उत्तमचेतन धर्मसमृद्ध जगत्पते नित्याऽनित्यपदार्थ नि. चयविलसन्मते । निजविक्रमजित मोह महोद्भटभूपते श्रीपद्मातनुनात सुजादियुते || १ || श्री मुनिसुव्रत सुव्रतदेशक सज्जनाः कृतसद्गुरु शुभवाक्यसुधरसमञ्जना, ये प्रणमन्ति भवन्तमनन्त सुखाश्रितं केवल मुज्जवल भावमखण्डमनिन्दितम् || २ || ते निःसंशयमेव जगत्रयवन्दिताः सदभावेन भवन्ति सुदृष्टया नन्दिताः । कृत्यं स्वोचितमेव यतः किल कारणं जनयति नात्मविरुद्धमिहासाधारणम् ||३|| ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ।। For Private And Personal Use Only

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