Book Title: Jain Prachin Stavanadi Sangraha
Author(s): Ujamshi Thakarshibhai Ahmedabad
Publisher: Ujamshi Thakarshibhai Ahmedabad

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Page 416
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४५७ ॥ अथ श्रीकुन्थुनाथ जिनचैत्यवंदन ॥ ॥ गोतपद्धति छन्दः ॥ ॥ जय जय कुन्थुजिनोत्तम सत्तमतत्त्वनिधान, धर्मिजनोज ज्वलमानसमानसहंसमान । ज्ञानाच्छादकमुख्यमहोद्धतकर्मविमुक्त, विषमविषयपरिभोगविरक्त शुभाशययुक्त ॥ १ ॥ जय जय विश्व जनीन मुनिव्रजमान्य विशुद्ध, चेतन चारुचरित्रपवित्रित लोकविबुद्ध । निरुपममेरुमहोघरधीर निरन्तरमेव, गर्वविवर्जिवसर्वसुपर्व विनिर्मितसर्व ॥ २ ॥ जय जय सुरनरेश्वरचन्दनकल्प, जिनेशविश्वविभावविनाशक वीतविकल्प । निर्मलकेवलबोपविलोकितलोकालोक, मादुर्भुतमहोदयनिर्दृति नित्यविशोक ॥ २ ॥ ॥ अथ श्रीअरनाथ जिनचैत्यवन्दन ॥ ॥रामगिरिरागेण गोयते । दिव्यगृणधारकं भव्यजनतारकं, दुरितमतिवारकं सुकृतिका. न्तम् । नितविषमसायकं सर्वसुखदायक, जगति निननायकं परमशान्तम् ॥ १॥ स्वगुणपर्यायसंमीलितं नौमि तं, विगतपरमावपरिणतिम खण्डम् । सर्वसंयोगविस्तारपारंगतं, प्राप्तपरमात्मरुपं प्रचण्डम् ।। दि० ॥ २ ॥ साधुदर्शनवृतं भाविकैः प्रस्तुत प्राति. हायाष्ठकोद्भासमानम् । सततमुक्ति पदं सर्वदा पूजितं शिवमही सार्वभौमपधानम् ॥ दि० ॥ त्रिनिर्विशेषकम् । For Private And Personal Use Only

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