Book Title: Jain Meghdutam ka Samikshatmaka Adhyayan
Author(s): Sima Dwivedi
Publisher: Ilahabad University

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Page 211
________________ 201 अत्यधिक गरम हो जाता है जो मार्ग में चलने वाले पथिको को जला देता है। प्रतापी सूर्य के उष्ण किरणो से कमलों के निवास स्थान तालाब सूख गये हैं। ग्रीष्म में ताप के विस्तार से पीडित लोगो के हाथों से जलकण वर्षा एवं वायु के लिए इलाये जा रहे पंखे ऐसे शोभित हो रहे है मानो शीतलता रूपी बडे वृक्ष को तोड़ने के लिए लाखों शरीर धारण करने वाले धूप रूपी मतवाले हाथी के मदकण टपकाने वाले चञ्चल कान हों - तापव्यापाकुलितजनतपञ्चशाखे, तुषारान् संवर्षद्भिः पवनतुलितैस्तालवृन्तैर्विरेजे। धर्तुः शैल्योन्नततरुभिदे वर्मलक्षाणिधर्मव्यालस्येव स्रुतमदकणैः कर्णतालैर्विलोलैः ।। काव्य मे विभिन्न प्रकार के बिम्बों का प्रयोग प्राप्त होता है। कवि ने जो भी बिम्ब चयन किया है वे मानवीय भावनाओं के साथ समानान्तर चलते है। ऐसे ही ध्वनि बिम्ब का एक अनूठा निदर्शन देखिए, जिसमें प्रकृति भी श्रीकृष्ण की पत्नियो के साथ नाटक के शोभावर्द्धन मे सहायक होते है। ऐसा प्रतीत होता कि श्री नेमि श्रीकृष्ण की पत्नियो से घिरे हुए नवरसों से युक्त नाटक कर रहे है। ऐसा तथा उस नाटक मे रमणियों द्वारा उछाले गये जल से उत्पन्न ध्वनि मृदङ्ग की ध्वनि है, लहरों के झोकों से हिलती हुई कमलिनी अच्छी प्रकार से नृत्य करने वाली नर्तकी है एवं भ्रमर का गुञ्जार कानों को प्रिय लगने वाला गीत है।' प्रकृति में सर्वत्र स्नेह, करूणा, आतुरता, विह्वलता, संवेदना और सुकुमार आदि मानवीय भावनाओं का साम्राज्य दृष्टिगोचर होता है। एक जैनमेघदूतम् २/३४ जैनमेघदूतम् २/४४ तासां लीलोल्ललनजनिता ...... शुद्धसङ्गीतरीतिः। २/४४ जै.

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